कहानियां पढ़ते समय बच्चे किरदारों में अक्सर अपने आप को ढूंढते हैं. जब स्टोरी में कोई अपने जैसा मिलता तो वही कैरेक्टर उनका पसंदीदा बन जाता. लेकिन, खुद से मेल खाने वाले कैरेक्टर नहीं मिलते तो वे अकेला महसूस करते. अवॉर्ड विनिंग चिल्ड्रंस ऑथर अर्चना मोहन ने न्यूरोडायवर्जेंट बच्चों के लिए ऐसी किताब लिखने का सोचा जिसमें उनके जैसे किरदार हों. इस किताब के ज़रिये वे न्यूरोडायवर्जेंट बच्चों के नज़रिये को दुनिया के साथ साझा करना चाहती थी, ताकि लोग इन बच्चों को समझ सके और उनके साथ बेहतर व्यवहार करें. अर्चना अपनी किताब 'एक्स्ट्रा: एक्स्ट्रा क्रोमोसोम, एक्स्ट्रा लव' के ज़रिये ऐसा करने में सफल रहीं. बेंगलुरु (Bengaluru) के प्रमुख प्रकाशक बुकोस्मिया (Bookosmia) ने उनकी किताब को प्रकाशित किया.
Image Credits: Bookosmia
साहित्यिक कला का ये काम अपनी सरल लेकिन प्रभावशाली कहानी के लिए पाठकों की पसंद बन रहा है. 'एक्स्ट्रा: एक्स्ट्रा क्रोमोसोम, एक्स्ट्रा लव' (Extra: Extra chromosome, extra love) की कहानी सामाजिक उद्यमी शिवानी ढिल्लों (Shivani Dhillon), उनके पति अजय, और उनके बच्चों श्रेया, नूर और अवि के वास्तविक जीवन के इर्द-गिर्द घूमती है, जिन्होंने अर्चना को ये किताब लिखने के लिए प्रेरित किया. शिवानी की बेटी श्रेया (shreya) को डाउन सिंड्रोम (Down Syndrome) है, जो इस कहानी की मुख्य थीम है. इसके वैज्ञानिक कारण से लेकर ज़िन्दगी में पड़ने वाले असर तक, ये कहानी डाउन सिंड्रोम के सभी पहलुओं को कवर करती है .
शिवानी ने एक मां के रूप में देखा कि समाज ऐसे बच्चों को कैसे देखता है. वह बताती हैं, "सबसे बड़ी चुनौती डाउन सिंड्रोम के प्रति धारणा और कलंक है. हम हमेशा समाज को यह समझाने की कोशिश करते हैं कि कम से कम हमारे बच्चों को एक मौका दिया जाए. हम चाहते हैं कि समाज यह समझे कि मूल रूप से डाउन सिंड्रोम जैसी स्थितियों वाले लोग भी हमारी तरह ही होते हैं, जिनमें प्यार और सराहना पाने की समान इच्छा होती है."
शिवानी बताती है कि श्रेया के साथ ने उन्हें "दृढ़, मजबूत और ज़िद्दी" होना सिखाया, साथ ही छोटी-छोटी खुशियों को बांटना भी. लेखिका अर्चना कहती है, "हम सभी के दिमाग अलग हैं, काम करने के तरीके अलग हैं और क्षमताएं भी अलग हैं. हम सब अपना बेस्ट देने की कोशिश करते हैं." वह बताती है कि इस किताब का जन्म इसी विचार से हुआ है. पुस्तक के ज़रिये, अर्चना कहना चाहती है - "एक बच्चे पर लेबल क्यों लगाएं, उन्हें एक कोने में क्यों धकेलें और कहें 'वह विशेष या अलग है', जबकि वास्तव में ये ऐसी चीजें हैं जिनसे हर बच्चा गुजरता है?"
शिवानी की कहानी पर लिखी अर्चना की ये किताब विकलांगता को लेकर समाज के नज़रिये को बदलने की कोशिश है. इस तरह की किताबों से रीडर को अपनी धारणाओं पर सवाल उठाने का और नए नज़रिये को समझने का मौका मिलता है.