'सीड मदर' : देसी बीजों के संरक्षण ने दिलाया पद्मश्री

उन्होंने 154 बीजों के देशी किस्मों के संरक्षण के साथ किसानों को पारंपरिक तरीकों से फसल उगाने के लिए प्रोत्साहित और जागरूक किया. यह काम उन्होंने 25 साल पहले शुरू किया. सोमा पोपेरे बताती है कि स्वदेशी फसलों को उगाने के लिए सिर्फ पानी और हवा की जरूरत है.

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मिस्बाह
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आप बीमार होते है, तो ज़ाहिर है अस्पताल की ओर रुख करते होंगे. पर, राहीबाई सोमा पोपेरे ने जब अपने पोते और आस पास के बच्चों को बीमार और कुपोषण का शिकार होते देखा, तो उन्होंने खेतों की ओर ध्यान दिया. राहीबाई ने पाया कि खेतों में बहुत अधिक कीटनाशकों और रासायनिक उर्वरकों (फर्टिलाइज़र्स) का इस्तेमाल किया जा रहा है. इससे उपज बढ़ाकर ज़्यादा पैसे तो कमाए जा रहे हैं, पर इसके ज़हर से शरीर में पोषण की कमी और बीमारियां होने का खतरा बढ़ रहा है, खासकर बच्चों के लिए. 

उन्होंने 154 बीजों के देशी किस्मों के संरक्षण के साथ किसानों को पारंपरिक तरीकों से फसल उगाने के लिए प्रोत्साहित और जागरूक किया. यह काम उन्होंने करीब 25 साल पहले शुरू किया. सोमा पोपेरे बताती है कि स्वदेशी फसलों को उगाने के लिए सिर्फ पानी और हवा की जरूरत है. हाइब्रिड फसलों को उगाने में ज़्यादा पानी और कीटनाशक इस्तेमाल करना पड़ते हैं. उन्हें लोग 'बीज अम्मा', 'सीड मदर', या 'सीड वुमेन' के नाम से भी जानते हैं. 52 साल की सोमा पोपेरे महादेव कोली आदिवासी समुदाय से है. वे महाराष्ट्र के अहमदनगर जिले के अकोले आदिवासी ब्लॉक के कोम्बले गांव में रहती है. 

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उन्होंने खेती के ज़रिये अपने आस-पास की महिलाओं को आर्थिक रूप से मज़बूत बनने में मदद करने के लिए स्वयं सहायता समूह बनाया. 'सीड मदर' ने जैविक खेती को एक नया मुकाम देने के लिए स्वयं सहायता समूहों के ज़रिये किसानों को जोड़ा. समूहों ने मिलकर 50 एकड़ ज़मीन पर 17 से ज़्यादा देसी फसलें उगाईं. वह कभी स्कूल नहीं गई और न ही उनके पास कृषि क्षेत्र में कोई डिग्री है. बचपन में उनके पिता की बातों को ध्यान में रखते हुए उन्होंने बीज संरक्षण का काम शुरू किया. जो पुराने बीज अब बाज़ार में भी नहीं मिलते, वे राहीबाई सोमा पोपेरे के पास सुरक्षित हैं. शुरू में उनके गांव की महिलाएं उन पर हंसती थी. पर पोपेरे ने अपना काम नहीं रोका. धीरे-धीरे लोग उनके काम की एहमियत समझने लगे. उनसे आस-पास के गांवों से लोग सलाह लेने आने लगे. फिर अधिकारियों का ध्यान उन पर गया. 

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उन्होंने अकोले प्रखंड के 7 गांवों के 210 किसानों के साथ जलकुंभी की पौध, चावल, सब्जियां, फलियां की एक नर्सरी की शुरुआत की.  इन-सीटू जर्मप्लाज्म संरक्षण केंद्र की स्थापना की. इसके ज़रिये धान, जलकुंभी, बाजरा, दलहन, तिलहन समेत 17 अलग-अलग फसलों की खेती की. 5 स्वयं सहायता समूहों की ये लीडर गांव की स्वच्छता, साफ़ रसोई, बीज संरक्षण और जंगली खाद्य के बारे में लोगों को जागरूक कर रही है. एक छोटे से आदिवासी गांव में रहने वाली राहीबाई पोपरे को कृषि में उनके योगदान के लिए देश का चौथा सर्वोच्च नागरिक पुरस्कार पद्मश्री  से सम्मानित किया गया. उन्होंने अपने गांव कोम्भलने की मिट्टी और सभी किसानों को पद्मश्री पुरस्कार समर्पित किया. 'बीज अम्मा' ने आने वाले पीढ़ियों तक के लिए मिसाल क़ायम की है जिनके प्रयासों को कृषि वैज्ञानिकों ने भी सराहा.  

बीज अम्मा राहीबाई सोमा पोपेरे सर्वोच्च नागरिक पुरस्कार पद्मश्री स्वयं सहायता समूह