आइडियास दुनिया में बदलाव की वो चाबियां हैं जो कई बंद दरवाज़े खोल देते हैं और कितनी ही बार ऐसा हुआ है कि एक विचार ने पूरी दुनिया ही बदल डाली. आइंस्टाइन, अब्दुल कलाम, मैरी क्यूरी के आइडियास तो सबको पता है, पर आज हम बात करेंगे एक ऐसे आइडिया के बारे में जिसने हज़ारों महिलाओं की जिंदगी संवार दी.
वो आइडिया था, एक ऐसा आसान लोन जिसकी मदद से महिलाएं अपना रोज़गार शुरू कर सकती हैं. ऐसे लोन देने शुरू किये ग्रामीण बैंकों ने. ये वो बैंक हैं जो दूसरे बैंकों की तरह आपसे आपके प्रॉपर्टी के कागज़ नहीं मांगते, और न ही होश उड़ा देने वाला ब्याज की मोटी रकम लेते हैं.
'दान देकर एहसान करने की जगह क्यों न आसान क़र्ज़ देकर मदद का हाथ बढ़ाया जाये ?' इसी आइडिये के साथ मुहम्मद युनूस ने 1976 में एक पहल की. उन्होंने अपनी जेब से पहला लोन गांव की 42 महिलाओं को दिया. उस पैसे से महिलाओं ने टोकरियां बनाई और उसे बेच कर लोन चुकाया. इस आईडिया से यह समझ में आ गया कि ऐसे छोटे लोन से न केवल महिलाएं अपना ख़ुद का काम शुरू कर पाएंगी बल्कि वे गरीबी के चंगुल से भी बाहर निकल सकेंगी. जब बड़े बैंकों ने इन्हें लोन देने से इंकार किया तो ग्रामीण बैंक ज़रूरतमंदों की पसंद बनता गया.
1974 में बांग्लादेश में आयी बाढ़ और भुखमरी से 26 हज़ार लोगों की जान गई. उस समय बांग्लादेश युद्ध और नई मिली आज़ादी की चुनौतियों जैसे चरमराई अर्थव्यवस्था और गरीबी से भी जूझ रहा था. इस समय ग्रामीण बैंक लोगों का सहारा बना और जल्द ही इसके ग्राहकों की संख्या बढ़ती चली गई. 70 लाख से अधिक लोगों को कर्ज़ा दिया गया जिसमें 95 प्रतिशत से अधिक लोन महिलाओं या महिलाओं के समूहों को दिए गए . 2006 में ग्रामीण बैंक और इसके संस्थापक मुहम्मद यूनुस को नोबेल शांति पुरस्कार से सम्मानित किया गया. इसके बाद तो पूरे विश्व में 'ग्रामीण बैंक' का आइडिया तेज़ी से फैलने लगा.
ग्रामीण बैंक लोगों को 'गरीब', 'महिला', 'अनपढ़' या 'बेरोज़गार' कहकर क़र्ज़ देने से इंकार नहीं करता, बल्कि ये बैंक इन लोगों की क्षमताओं, स्किल्स, और कुछ कर दिखाने के जज़्बे पर भरोसा कर उन्हें लोन देते हैं. सभी उधार लेने वालों को बचतकर्ता बना कर उनकी पूंजी को दूसरों के लिए नए लोन में बदलते हैं. इस तरह नए लोग इससे जुड़ते चले जाते हैं. ग्रामीण बैंक सामूहिक लोन या सॉलिडेरिटी लेंडिंग को बढ़ावा देते हैं जिससे समाज के लोग साथ आकर लोन लेते हैं, साथ काम करते हैं और साथ मिलकर उसे चुकाते भी हैं. यूनुस कहते हैं ज़रूरतमंदों ने उन्हें अर्थशात्र को 'बाज की आँख' से नहीं बल्कि 'कीड़े की आँख' से देखना सिखाया है. आज इस सीख की वजह से पूरी दुनिया यूनुस को जानती है पर इस अनमोल सीख ने उनमें अभिमान नहीं आने दिया. यूनुस ने माइक्रो क्रेडिट को ज़रूरतमंदों, ख़ासकर महिलाओं की आर्थिक आज़ादी का सबसे बड़ा मूलमंत्र बताया.
भारतीय गाँवों में पर्याप्त बैंकिंग और लोन सुविधा देने के लिए 26 सितंबर 1975 को पारित एक आदेश और RBI (भारतीय रिज़र्व बैंक) अधिनियम 1976 के प्रावधानों के तहत क्षेत्रीय ग्रामीण बैंकों की स्थापना की गयी. आज भारत के 56 ग्रामीण बैंकों की 21,892 शाखाओं में से 92% शाखाएं ग्रामीण/अर्ध-शहरी क्षेत्रों में हैं. लगातार सरकार माइक्रो-क्रेडिट देने वाले बैंकों की संख्या और इनमें निवेश को बढ़ा रही है. ग्रामीण बैंकों ने स्वसहायता समूहों को लोन देकर उनका काम बढ़ाने में मदद की. माइक्रो क्रेडिट लेकर स्वसहायता समूहों ने सामाज के लिए काम किया और सामजिक समस्याएं जैसे बेरोज़गारी, औरतों के काम पर पाबन्दी को बड़ी सहजता से दूर किया.
अपने नोबेल लेक्चर में प्रोफेसर यूनुस ने गरीबी को शान्ति के लिए ख़तरा माना और गरीबी का मुक़ाबला करना मानवाधिकारों की लड़ाई का हिस्सा. यूनुस बताते हैं कि उनकी मां किसी भी ज़रूरतमंद को कभी निराश नहीं करती थीं, जो कुछ घर में होता दे दिया करती. ग्रामीण बैंक के ज़रिये उनकी मां का ये आइडिया आज पूरी दुनिया में 43 देशों के ज़रूरतमंदों का हाथ थामे हुए है.
स्वसहायता समूह की महिलाओं के साथ यूनुस (Image Credits: Google Images)