सृजना के साथ दीदी से सुपर दीदी बनने का सफ़र

2012 में सृजना नॉट फॉर प्रॉफिट की शुरुआत की गई. सृजना महिलाओं के साथ काम करने वाले स्वयं सहायता समूहों, कारीगरों, NGO, ग्राहकों और बाज़ारों को आपस में जोड़ने का काम करता है.

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मिस्बाह
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ज्योतिका भाटिया (Jyotika Bhatia) और वैशाली गांधी (Vaishali Gandhi) ने MBA की पढ़ाई के दौरान, मुंबई में ह्यूमन ट्रैफिकिंग की शिकार महिलाओं के साथ काम किया, जिसका  उन पर गहरा प्रभाव पड़ा. उन्हें समझ आया कि 21 दिन शेल्टर होम में गुज़ारने के बाद, बाहर की दुनिया से निपटने के लिए उनके पास कोई सहयोग नहीं होता. इस चुनौती का समाधान ढूंढ़ने के लिए ज्योतिका और वैशाली ने इन महिलाओं को स्किल सिखाने का सोचा. इसके लिए उन्होंने उसी शेल्टर होम में पायलट प्रोजेक्ट (pilot project) शुरू किया. जिन महिलाओं को जूलरी बनानी आती थी, उन्होंने दूसरी महिलाओं को ये हुनर सिखाया. 

भाटिया और गांधी ने इन जूलरी आइटम को अलग-अलग जगहों पर बेचना शुरू किया - कॉर्पोरेट परिसरों, विश्वविद्यालयों, और प्रदर्शनियों में कई चक्कर काटे. कई लोगों ने हैंडमेड जूलरी को खूब पसंद किया. आठ महीने तक चलने वाले इस पायलट प्रोजेक्ट ने महिलाओं की आजीविका शुरू करवाई, जिससे उन्हें उम्मीद मिली. रिसर्च करने पर पता लगा कि कई NGO इस मॉडल से फायदा उठा रहे हैं. वे महिला कारीगरों के प्रोडक्ट को मार्केट में पहुंच देकर आमदनी बढ़ाने में मदद करते हैं. महिलाओं के स्वयं सहायता समूहों को मार्केट तक पहुंचने में कई परेशानियों का सामना करना पड़ता है क्योंकि वो अपने ग्राहकों से जुड़ी नहीं होती. 

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Image Credits: Help Local

इसी बाधा को दूर करने के लिए 2012 में सृजना नॉट फॉर प्रॉफिट (Srujna –a not-for-profit) की शुरुआत की गई. सृजना महिलाओं के साथ काम करने वाले स्वयं सहायता समूहों (Self Help Group), कारीगरों, NGO, ग्राहकों और बाज़ारों को आपस में जोड़ने का काम करता है. सृजना ने महिलाओं द्वारा चलाए जा रहे SHG या आजीविका उत्पादन इकाइयों से जुड़ने के लिए उन्हें अपने उत्पादों को प्रदर्शित करने के लिए आमंत्रित किया. ये महिलाओं की तीन श्रेणियों के साथ काम करते हैं जो गरीबी, दुर्व्यवहार या मानव तस्करी से प्रभावित हैं. ये आम तौर पर कम आय वाले समूहों की महिलाएं होती हैं, जिनके परिवार में 4-5 सदस्य होते हैं और जिनकी मासिक आय 15,000 रुपये से कम है. वे ज्यादातर टेक्सटाइल या खाने-पकाने से संबंधित कोई काम करती हैं.  ये महिलाएं पंजीकृत या गैर-पंजीकृत स्वयं सहायता समूहों से जुड़ी होती हैं.

सहयोग की शुरुआत बुनियादी ढांचे की कमी पूरी करने से होती है. जैसे, किसी समूह के पास 20 पीस सिलने के लिए बस एक साधारण सिलाई मशीन थी. सृजना ने उन्हें स्केल करने में मदद करने के लिए नई सिलाई मशीन लेने में मदद की. कैपेसिटी बिल्डिंग करने के लिए उन्हें एक्सपर्ट्स द्वारा ट्रेनिंग भी दिलाई जाती है. टीम उन्हें कच्चा माल खरीदने से लेकर ऑर्डर पूरा करने तक मदद करती है. सृजना मार्केटिंग में भी सहायता करती है. जब समूह आत्मनिर्भर हो जाता है, तो उसे सीधे क्लाइंट से जोड़ दिया जाता है. 

देखा गया कि महिलाएं खुद पैसे कमाकर आत्मनिर्भर तो बन रही थी, लेकिन उनकी सोच में फ़र्क़ नहीं आ रहा था.  वे अभी भी 'अरे ये तो चलता है' वाली सोच के साथ जी रही थी. उन्हें इस क़ाबिल बानाना था कि वे अपने फैसले खुद ले सकें. उन्हें ट्रैन करने के लिए, द/नज इंस्टिट्यूट (The/Nudge Institute) के सहयोग से सुपर दीदी प्रोग्राम शुरू किया. कार्यक्रम का लक्ष्य उनमें आत्मविश्वास बढ़ाना, सकारात्मक विश्वास पैदा करना, आत्म-जागरूक बनाना, उनके नेतृत्व कौशल को निखारना, जीवन कौशल विकसित करना और विकास की मानसिकता को प्रोत्साहित करना था.

सृजना से जुड़कर SHG 365 रुपये में बैक्टीरिया-मुक्त, रसायन-मुक्त और गंध-मुक्त रीयूजेबल सैनिटरी नैपकिन किट बना रहे हैं. केवल छह महीनों में 44 सुपर दीदियों के साथ सृजना अब तक 20 हज़ार महिलाओं तक पहुंच चुकी हैं. सृजना का लक्ष्य 100 सुपर दीदी बनाने का है. आगे चलकर हर एक दीदी 30 दूसरी महिलाओं को प्रभावित करेगी. स्वयं सहायता समूहों को इस तरह की सहायता अपने प्रोफेशनल सफ़र में आगे बढ़ने में मदद करेगी, उनके असंगठित कामों को दिशा देगी, और आमदनी को बढ़ाने का ज़रिया बनेगी.  

NGO आजीविका self help group pilot project Jyotika Bhatia Vaishali Gandhi Srujna –a not-for-profit