होल्कर स्टेट (Holkar state) की रानी अहिल्या बाई होल्कर (Ahilya Bai Holkar) के कई किस्से इतिहास में दर्ज हैं. उनके जीने का अंदाज़ और धैर्यता हम सब को जीना सिखाता है. उनकी जयंती पर जगह-जगह आयोजन हो रहे है. अहिल्या बाई के कार्यकाल को ढाई सौ साल बीत गए ,लेकिन आज भी उनके आदर्शों पर महिलाएं चल रहीं है . ये महिलाएं संवेदनशील है और समाज के लिए बहुत कुछ कर गुज़र रहीं है. यही 'आज की अहिल्या' हैं. रविवार विचार की इस सीरीज़ में मिलवा रहे ऐसी महिला अफसर से , जिसने कर्मों से दूसरों की ज़िंदगी को संवार दिया.
ड्राइविंग लाइसेंस (Driving License) की भी एक यूज़ लिमिट होती है. लिमिट ख़त्म होते ही उसे रिन्यू कराना होता है,वर्ना कोई काम का नहीं. यहां तक कि परमिट भी ख़त्म हो जाते हैं. और जब बात ज़िंदगी की लिमिट ख़त्म होने की हो तो आप सोच सकते हैं क्या बीतेगी ! ठीक ऐसा लगा कि ज़िंदगी की लिमिट ख़त्म हो रही और सांसों के रिन्यूअल के चांस ख़त्म हो रहे हैं. हंसती-खेलती ज़िंदगी में ऐसा हादसा हुआ कि पलभर में शरीर को स्थाई तौर पर ठहरा दिया. ऐसे हालातों में अच्छे अच्छों का ईश्वर से भरोसा उठने लगता है ऐसे में एक महिला ने ज़िंदगी की किस्मत के पन्ने खोले और खुद ने आत्मविश्वास की स्याही से दस्तख़त कर दिए. ये हैं आत्मविश्वास का दूसरा नाम है अर्चना मिश्रा (Archana Mishra). इंदौर की असिटेंट रीजनल ट्रांसपोर्ट ऑफिसर (Assistant Regional Transport Officer).इनकी कहानी कोई फ़िल्मी कहानी से कम नहीं. पर न ये कहानी है न फ़िल्म की काल्पनिक स्क्रिप्ट. ये ज़िंदगी कि हकीकत बताती वह कहानी है जो हजारों लोगों के लिए प्रेरणा है. ये हैं 'आज की अहिल्या' अर्चना मिश्रा. कई युवाओं और निराश लोगों की आइडल हैं, जो जरा सी मोच में बिस्तर पकड़ लेते हैं या लाइफ से हार मान जाते हैं.
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बचपन से होनाहर अर्चना ने एमएससी केमिस्ट्री में टॉप किया. एक मित्र के सुझाव पर कॉम्पिटेटिव एग्जाम की तैयारी शुरू की. उनका चयन एक बार नहीं बल्कि दो बार पीएससी में हुआ. आरटीओ विभाग में बड़े पद पर पहुंचीं. एक बार और पीएससी के लिए धुन सवार थी. डिप्टी कलेक्टर बनने की तैयारी के बीच एक रोड एक्सीडेंट में अर्चना हमेशा के लिए व्हील चेयर पर आ गई. लगा जैसे ज़िंदगी थम गई. दो साल यूहीं गुजरे और फिर हिम्मत, ज़ज़्बे के साथ आत्मविश्वास से ज़िंदगी की गाड़ी को नई रफ़्तार दी.अर्चना मिश्रा कहती हैं - "साल 2012 में एक रोड एक्सीडेंट में मेरी स्पाइन डैमेज हो गई. काफी इलाज कराया. पर यह कड़वा सच समझ आ गया कि मेरी आगे की ज़िंदगी व्हील चेयर पर ही होगी. मैं चल नहीं पाऊंगी. मेरे परिजनों का उदास होना सहज था. मेरे पिता हों या कोई और सदस्य, मुझे इस हालत में देख भावुक हो जाते.खूबसूरत ज़िंदगी के पर कट गए. मेरा ईश्वर से भरोसा उठ गया. प्रतिष्ठित जॉब, पति, सुंदर बेटी और परिवार के बावजूद खुद को असहाय महसूस करती रही. फिर एक दिन लगा यह सब नहीं चलेगा. मैंने आंसुओं को समेटा. 'कर्म के सिद्धांत' जैसी कई किताबें पढ़ी.मेरी सोच और जीने का अंदाज़ बदल गया.
ज़िंदगी की नई शुरुआत का मकसद तय कर लिया. समाज और खासकर महिलाओं को आत्मनिर्भर बनाने की ठान ली.अर्चना आगे बताती हैं - " मुझे लगा कि लोक परिवहन में महिलाओं की भागीदारी कम है. मैंने अभी तक 300 महिलाओं को ड्राइविंग सिखवाई. 30 से 35 साल के बीच की इन महिलाओं से मिली. इन महिलाओं की अपनी परेशानी थी. किसी के पति ने तलाक दे दिया तो कोई मायके में आश्रित है. ऐसी कुछ महिलाओं को मैंने ई-रिक्शा दिलवाए. आज वे आत्मनिर्भर हैं. मुझे बहुत ख़ुशी है कि इन में से ही एक युवती ड्राइविंग स्कूल खोलने जा रही है. "
अपनी दिव्यांगता को भुला कर अर्चना मिश्रा का पूरा समय दूसरों की मदद में बीत रहा है. ई-रिक्शा संचालक युवती बताती है कि रिक्शे कीमत एक लाख अस्सी हजार थी. मेरी आर्थिक हालत इतनी कमजोर थी कि मार्जिन मनी भी नहीं भर सकती थी. अर्चना मिश्रा ने जनसहयोग से हर महिला के 25-25 हजार रुपए मार्जिन मनी जमा करवाई.ऐसी निर्धन महिलाओं को सिर्फ दस हजार रुपए ही देना पड़े. लगभग 20 महिलाएं इंदौर की सड़कों पर रिक्शा चला कर अपना घर चला रहीं हैं.
ज़िंदगी में हर जरूरतमंद व्यक्ति कि मदद के लिए तैयार अर्चना आगे बताती है - " कर्म के सिद्धांत किताब के बाद लगने लगा कि सृष्टि बहुत सुंदर है. आत्मनिर्भर बन चुकी महिलाओं के चेहरे की ख़ुशी देख ईशवर पर भरोसा और बढ़ गया. परिवार में पति विवेक मिश्रा और दूसरे परिजनों के सपोर्ट ने मुझे नई ज़िंदगी दी. मेरी व्हील चेयर मेरी मज़बूरी नहीं लगती बल्कि ये "व्हील ऑफ़ फॉर्च्यून " है ,जिसके बल पर मैं लोगों के लिए जीना सीख गई. कोई भी दुःख ज़िंदगी की खूबसूरती को कम नहीं कर सकता. और देवी अहिल्या बाई होल्कर का जीवन भी यही सिखाता है."