सूरत नहीं मिलती तेरी सूरत से किसी की, गहने से तेरे किसी का ज़ेवर नहीं मिलता... यह बात कहना बिलकुल सही होगा ओडिशा की महिलाओं के लिए जिन्होनें हाल ही में हुए ज्वेलरी मेकिंग ट्रेनिंग प्रोग्राम में में कमाल कर दिया. उनके जेवर किसी के गहने से नाही मिल रहे थे क्यूंकि उन्हें बांस से तैयार किया गया था. महिलाओं की पसंद के हार, कंगन, झुमके, अंगूठियां, हेयरपिन, कमरबंद और चूड़ियां तो थी लेकिन आम नहीं, ख़ास ! 150 कोंध और सौरा जनजाति की महिलाएं बांस के ज़ेवर बना रहीं हैं जो दुनिया भर में पसंद किये जा रहे हैं. यह शुरुआत की प्रियदर्शिनी दास ने जो कि पर्यावरण के अनुकूल आभूषण, सामान के लिए एक लोकप्रिय ब्रांड 'इकोदर्शिनी' की संस्थापक हैं और भुवनेश्वर में रहतीं हैं.
प्रियदर्शिनी कहतीं हैं- “2021 में हमने लगभग 50 महिलाओं के साथ दो स्वयं सहायता समूह बनाए और उन्हें बाँस के आभूषण बनाने के लिए प्रशिक्षित किया. इन आभूषणों की सुंदरता, लम्बे समय तक टिकने और पर्यावरण अनुकूल होने की वजह से इनकी बहुत मांग भी हैं. आभूषण के लिए कच्चे माल के बारे में बात करते हुए डिजाइनर ने कहा- "पर्यावरण के अनुकूल होने के कारण बांस पर्यावरण के प्रति जागरूक खरीदारों का पसंदीदा बन गया है. बांस के गहनों की भारी मांग है. रायगड़ा जिले के इन कारीगरों में से प्रत्येक को आभूषण बनाने से लगभग 10,000 रुपये से लेकर 25,000 रुपये तक मिल जाता हैं.” प्रियदर्शनी के यह आभूषण अब कनाडा, संयुक्त राज्य अमेरिका और यूरोपीय संघ के अंतर्राष्ट्रीय बाजारों में भी पहुंच गए हैं.कार्लकोना ग्राम पंचायत की सरपंच नीलांबर वडाका कहती हैं- "प्रियदर्शनी दास ने बांस के आभूषणों के प्रचार और बिक्री के लिए बहुत अच्छा काम किया हैं. वह हमारे लिए 'ग्रीन क्वीन' हैं." 'ओडिशा रूरल डेवलपमेंट एंड मार्केटिंग सोसाइटी' (ORMAS) के संयुक्त मुख्य कार्यकारी अधिकारी बिपिन राउत ने कहा- "ओडिशा रूरल डेवलपमेंट एंड मार्केटिंग सोसाइटी कारीगरों को राज्य भर के शिल्प मेलों और प्रदर्शनियों में बांस के आभूषण बेचने के लिए आमंत्रित करके प्रियदर्शनी उनकी मदद कर रहीं है."
24 वर्षीय आरती जिन्होनें 2022 बांस से आभूषण बनाने की एक ट्रेनिंग में भाज लिया था, तभी से उन्हें बांस के आभूषण बनाने के दिलचस्पी आ गयी और आज आरती अपने हाथों से किसी भी बांस के टुकड़े को एक सुन्दर ज़ेवर का रूप दे सकती हैं. वे कोंध जनजाति से ताल्लुक रखती हैं और रायगड़ा जिले के बड़ाचंदली गाँव में रहती हैं. आरती बताती हैं- “मैं आजीविका के लिए महुआ के फूल, तेंदू के पत्ते, लकड़ी और शहद जैसे वन उत्पाद इकट्ठा कर बेचती थी. यह एक कठिन और जोखिम भरा काम था. लेकिन अब मैं बांस के गहने बनाती हूं और महीने में 12,000 रुपये तक कमा लेती हूं," पेडेंटी की तरह, करलाकोना गाँव की पिंकी कुद्रका ने भी 2021 में बांस के आभूषण बनाना सीखा.
इस तरीके की पहल से दो काम आसानी से हो रहे हैं. पहला तो महिलाओं को रोजगार का अवसर मिल रहा हैं और पर्यावरण को भी कोई हानि नहीं पहुंच रहीं. 'पर्यावरण की सुरक्षा भी हमारे ही हाथों में हैं', महिलाएं इस बात को समझ रहीं हैं और इसके लिए देश भर में काम भी कर रहीं हैं. स्वयंसहायता समूहों के लिए यह एक बहुत बड़ी सीख हो सकती हैं. देश की हर महिला अपना जीवन बदल सकती हैं और पर्यावरण को लिए भी बहुत कुछ कर सकती हैं, बस देर ठानने की हैं.