निमाड़ (Nimad) की पहचान कपास या गेहूं तक सिमित नहीं रही. घर से निकल कर ये दीदियां खेतों तक पहुंची. अपनी मेहनत के बल पर निमाड़ की विलुप्त हो चुकी फसल को नए सिरे से उगा कर रिकॉर्ड बना दिया. कुसुम (Kusum flower) जैसे सुंदर फूलों वाली विलुप्त खेती ने खंडवा जिले को एक बार फिर नई पहचान दे दी. आजीविका मिशन से जुड़े स्वयं सहायता समूह (Self Help Group) की इन महिलाओं ने अपने परिवार के दूसरे सदस्यों के साथ खेत में कमान संभाल ली. खंडवा जिला अब कपास फसल के साथ औषधीय पौधों की खेती में आगे आया. कुसुम की खेती ने किसान दीदियां को आत्मनिर्भर बनाकर इलाके की तस्वीर बदल दी.
खंडवा (Khandwa) जिले के पंधाना ब्लॉक के छोटे से गांव गुड़ीखेड़ा की राधा काजले कहती है -"हमारे परिवार में पांच एकड़ जमीन है. गेहूं और कपास की बुआई करते थे. बहुत मेहनत के बाद भी अधिक मुनाफा नहीं होता. मैंने रानी स्वयं सहायता समूह बना कर महिलाओं को जोड़ा. जगंल में उगने वाला बहेड़ा (त्रिफला के साथ मिलाने वाली जड़ी) को इक्कठा किया.आजीविका मिशन के अधिकारियों ने इसका फायदा बताया. हमने इसे समूह की दीदियों से लेकर प्रोड्यूसर कंपनी को दुगने मुनाफे में बेचा."
कुसुम के सुंदर फूलों के बीच खड़ी महिला (फोटो क्रेडिट : रविवार विचार)
जिले में कुसुम की खेती के अलावा बेहड़ा को इक्कट्ठा कर भी किसान दीदी और दूसरी महिलाओं को अलग से रोजगार मिला. पंधाना ब्लॉक की ही गोलखेड़ा गांव की कल्पना कोचले कहती है -"हमारे परिवार के पास केवल तीन एकड़ खेती की जमीन है. गेहूं ,चना की खेती से जितनी मेहनत की उतना मुनाफा नहीं मिलता. हमने 'संकल्प महिला स्वयं सहायता समूह' बनाया. कुछ और समूह की रेखा दीदी और प्रेम दीदी सहित दूसरी महिलाओं ने लगभग दस एकड़ जमीन में कुसुम के बीज की खेती की. दूसरी फसलों की तुलना में कई गुना ज्यादा मुनाफा हुआ. मुझे ख़ुशी है कि मेरे पति ओमप्रकाश के साथ मिलकर खेती में साथ दे रहे. मुझे खुद इस फसल से लगभग सवा लाख रुपए की कमाई हुई."
इंटरनेशनल कंपनी तक पहुंच रहा प्रोडक्ट
इस कुसुम की खेती में किसान दीदियों को फायदा होने का कारण उन्हें घर बैठे मार्केटिंग (marketing) का साथ मिला. खंडवा जिले का प्रोडक्ट इमामी (Emami) और डाबर (Dabur) जैसी नामी-गिरामी कंपनी ने खरीदने के लिए यहां अनुबंध किया. यहां तक कि दक्षिण भारत की एक कंपनी ने यहां के प्रोडक्ट्स को थाईलैंड (Thailand) तक भेज दिया. आजीविका मिशन (Ajeevika Mission) की माइक्रो फाइनेंस (Micro finance) जिला प्रबंधक नीलिमा भदौरिया बताती हैं- "मैंने सभी किसान दीदियों को एकजुट कर आर्थिक हालात सुधारने के लिए जलकुआं में कृषि नमामि आजीविका फॉर्मर प्रोड्यूसर कंपनी बनाई. जिले में शुरुआत में अलग-अलग समूह की 125 दीदियों ने 125 एकड़ में कुसुम की बुआई की. पहले सीज़न में ही एक एकड़ में दस हजार की लागत में 60 से 70 हजार रुपए का मुनाफा हर दीदी को हुआ. इस बार एक हजार किसान दीदियों को जोड़कर एक हजार एकड़ में कुसुम की खेती करने की तैयारी है.इसके अलावा महिलाओं से बेहड़ा भी खरीद रहे. नीम के पेड़ से गिरने वाली निंबोली भी खरीद कर सैकड़ों महिलाओं को आर्थिक मजूबती दे रहें हैं."
आजीविका मिशन के ही माइक्रो इंटरप्राइजेस (micro enterprises) के डीएम धर्मेंद्र भदौरिया कहते हैं -"यहां किसान दीदियों से फूल और बीज ले कर उनकी ग्रेडिंग की जाती है. हम किसानों को बुआई के लिए सीड भी उपलब्ध करवा रहे. यहां किसान दीदियों से फूल और बीज ले कर उनकी ग्रेडिंग की जाती है.बिचौलियों को हटा देने से दीदियों को सीधा लाभ मिल रहा है." आजीविका मिशन के सीईओ एलएम बेलवाल और स्टेट प्रोजेक्ट मैनेजर(संचार) दिनेश दुबे भी किसान दीदियों से मिले. दुबे ने आश्वासन दिया कि समूह की सदस्यों को आर्थिक मजबूती के लिए लगातार प्रेरित किया जाएगा.
क्या है कुसुम और उसकी खेती !
कुसुम के फूलों को तोड़ती महिला (फोटो क्रेडिट : रविवार विचार)
कुसुम को अमेरिकन केसर भी कहते हैं. बॉटनिकल नाम कार्थमस टिंक्टिरियस है. इसे मेडिसनल प्लांट (medicinal plant) माना जाता है. पीले, नारंगी और लाल रंग के सुंदर फूल इसकी पहचान है. इसके फूलों की पंखुड़ियां, बीज और यहां तक छाल का उपयोग होता है. लगभग चार महीने में यह फूल आने लगते हैं. राज्य औषधीय पादप बोर्ड के कंसल्टेंट मनीष पुरी गोस्वामी बताते हैं -"यह बहुत खास किस्म का पौधा है. जिसकी पंखुड़ियां बहुत महंगी बिकती हैं. सीड से ऑइल तैयार किया जाता है. इसको कई लोग खाने में प्रयोग करते हैं. इससे तैयार मेडिसिन का पाचन, बच्चों के पेट की कृमि दूर करने, जोड़ों के दर्द, महिलाओं के शारीरिक समस्याओं में भी किया जाता है. आजकल कुछ कंपनियां फेशियल उपयोग भी कर रहीं हैं.कुसुम के फूल 600 रुपए किलो और बीज 25 सौ रुपए क्विंटल बिक जाता है."
सफल रहा पायलट प्रोजेक्ट
राज्य निति आयोग की सीनियर कंसल्टेंट डॉ. नेहा गुप्ता कहती हैं - "शासन की देवारण्य योजना का मकसद औषधीय पौधों की खेती और संग्रहण को बढ़ावा देना है.आयुष विभाग के पूर्व प्रमुख सचिव प्रतीक हजेला ने खुद किसान दीदियों से मिलकर इस खेती से हो रहे फायदे की जानकारी ली. यहां तक कि मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान ने भी इस प्रोजेक्ट पर विशेष रूचि ली. इस प्रोजेक्ट से जनजातीय छोटे किसान और स्वयं सहायता समूह (SHG)की महिलाओं को और अधिक आत्मनिर्भर बनाना है." जिले की किसान दीदियों को वन मेला भोपाल सहित गोवा में आयोजित अंतरराष्ट्रीय मेले में भी शामिल होने का मौका मिल चुका है. आने वाले दिनों में यहां 10 से ज्यादा औषधीय पौधों की खेती की योजना तैयार की जा रही है.