गर्मी की धुप में जब हम घर की ओर रुख़ करते हैं, तब पापड़ आपकी और हमारी छतों पर उस धुप को सोख रहे होते हैं. ज़िंदगी में कई तरह के पापड़ बेलने पढ़ते है और जब ये पापड़ महिलाओं के समूह ने मिलके बेले, तो वो लिज्जत पापड़ कहलाये. चाय कॉफी या भोजन के साथ लिज्जत पापड़ की कर्रम कुर्रम न हो तो कइयों के मुंह बन जाते हैं. इसीलिए हर महीने की राशन की लिस्ट में पापड़ ज़रूर होता है. पिछले 60 सालों में लिज्जत पापड़ ने घरों की छत और आंगन से लेकर विदेश तक का सफ़र तय किया. पापड़ को विदेश का टीकट दिलवाने की ये पहल की जसवंतीबेन जमनादास पोपट ने.
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हाथों में भले ही इन्होंने कभी कलम न पकड़ी हो लेकिन एक बेलन से इन्होंने अपनी सफ़लता की कहानी बेली. साइड डिश से सेंटर ऑफ़ अट्रैक्शन बनी इस लिज्जत पापड़ की कहानी शुरी हुई साल 1959 में. मुंबई के गिरगांव में घर के बरामदे में 6 सहेलियां गप्पे मार रहीं थी. पापड़ बनाने का ख़याल आया. फिर सोचा, क्यों न इस ख़याल को रोज़गार में बदल दिया जाये. पैसों की तंगी से जूझती महिलाओं को पापड़ में उम्मीद नज़र आई.
जसवंतीबेन के साथ शामिल हुईं पार्वतीबेन रामदास ठोदानी, उजमबेन नरानदास कुण्डलिया, बानुबेन तन्ना, लागुबेन अमृतलाल गोकानी, जयाबेन विठलानी पापड़ बनाने का काम शुरू करेंगी. उनकी एक और सहेली ने पापड़ों को बेचने का ज़िम्मा लिया. अब ज़रुरत थी 80 रुपयों की. इंतज़ाम न हो पाने पर सहेलियां सामाजिक कार्यकर्ता छगनलाल पारेख के पास पहुंचीं. उन्होंने 80 रुपये उधार दे दिए. पापड़ बनाने की एक मशीन और कुछ सामान खरीद शुरू किया श्री महिला गृह उद्योग लिज्जत पापड़.
शुरुआत में चार पैकेट पापड़ बनाये. कुछ समय बाद ही बड़े व्यापारी के पास किस्मत आज़माने का सोचा. व्यापारी ने और पापड़ की मांग की. धीरे-धीरे इनकी बिक्री दिन दुगनी रात चौगुनी बढ़ने लगी. छगनलाल ने इन्हे खाता संभालना, मार्केटिंग आदि के बारे में ट्रेनिंग लेने में भी मदद की. इन सात महिलाओं का यह समूह एक कोआपरेटिव सिस्टम बन गया. फिर इसमें 18 साल से ज़्यादा उम्र वाली ज़रूरतमंद महिलाओं के जुड़ने का सिलसिला शुरू हुआ. और आज 60 से ज़्यादा शाखाओं में करीब 4500 महिलाएं लिज्जत पापड़ बना रहीं हैं.
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जैसे-जैसे समूह में और महिलाएं जुड़ती गईं, वैसे-वैसे महिलाओं को मज़बूत बनाने का सफ़र आगे बढ़ता चला गया. नए सदस्यों और उनके परिवारों के लिए साक्षरता और कंप्यूटर शिक्षा को बढ़ावा दिया. जून,1999 को गिरगांव में साक्षरता अभियान शुरू हुआ. 1980 के बाद से, लिज्जत ने सदस्यों की बेटियों को छगनबापा स्मृति छात्रवृत्ति देना शुरू की.वलोद में ग्रामीण महिलाओं के लिए एक शैक्षिक और शौक सेंटर शुरू किया. टाइपिंग, खाना पकाने, सिलाई, बुनाई और खिलौना बनाने के साथ-साथ बाल कल्याण, प्राथमिक चिकित्सा और स्वच्छता के बारे में भी जागरूक किया.
लिज्जत की वालोद शाखा की मदद से वालोद में पहली पक्की सड़क का निर्माण और उद्घाटन 1979 में किया गया. 1979 में, लिज्जत ने UNICEF के साथ "बाल देखभाल और माँ कल्याण" पर मुंबई में एक सेमीनार आयोजित किया. अक्टूबर 1984 में NITIE, पवई में आयोजित UNESCO की अंतर्राष्ट्रीय वर्कशॉप में भद्राबेन भट्ट ने लिज्जत का प्रतिनिधित्व किया. मदर टेरेसा के कहने पर, सदस्य-बहनों ने बेसहारा महिलाओं की देखभाल करने वाली संस्था आशा धन की गतिविधियों में भी भाग लिया. लिज्जत पत्रिका, लिज्जत की गतिविधियों में रुचि रखने वालों के लिए मामूली रेट पर प्रकाशित और प्रसारित की गईं. यह हिंदी,अंग्रेजी, मराठी, और गुजराती में प्रकाशित होती है. लिज्जत की सभी शाखाओं की सदस्य बहनें अपने काम शुरू करने से पहले सर्वधर्म प्रार्थना करती हैं. और लिज्जत में रिटायरमेंट की कोई तय उम्र नहीं.
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लिज्जत पापड़ को साल 2002 में इकोनॉमिक टाइम्स 'बिजनेस वुमन ऑफ द ईयर' अवार्ड, 2003 में देश के 'सर्वोत्तम कुटीर उद्योग' सम्मान और 2005 में पूर्व राष्ट्रपति डॉ एपीजे अब्दुल कलाम द्वारा ब्रांड इक्विटी अवॉर्ड और 2021 में पद्मश्री से सम्मानित किया गया. और ये समूह देश की हज़ारों महिलाओं के लिए मिसाल बना. ये महज़ एक कहानी नहीं पर उन महिलाओं का हौसला है जिन्हे लगता है कि औरतें क्या ही कर सकती हैं. ये कहानी जानकार शायद लिज्जत पापड़ का स्वाद और बढ़ जायेगा , अगली बार जब पापड़ खाये तो इन सहेलियों के साहस और उड़ान भरने के होंसले को भी याद करें....