रशीद-उन-निसा: भारत की पहली नॉवेलिस्ट

'इस्लाह उन-निसा' नाम के उपन्यास पर नाम छपा, 'मदर ऑफ मोहम्मद सुलेमान, बैरिस्टर' का. असलियत में ये उपन्यास लिखा था रशीद- उन-निसा ने. 1881 में पूरा किया, जिसे 1894 में उनके बेटे के नाम से छापा गया.

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मिस्बाह
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rasheed un nisa first indian female novelist

Image Credits: Ravivar vichar

लेखक की पहचान उसका लेख होता है. अपनी किताब के सबसे पहले पन्ने पर अपना छपा देखना सपना होता है. आप सोच रहे होंगे, जो किताब लिखता है उसका नाम तो किताब के ऊपर ही दिख जाता है. लेकिन, नहीं, लेखिकाओं के हिस्से ये खुशी काफ़ी देर से आई. आज भी एक महिला की पहचान उसके पिता, पति, या बेटे से होती है. पर एक उपन्यास लिखने वाली महिला की पहचान भी इसी तरह होना, चौंका देने वाली बात है. उन्नीसवीं सदी में, पटना (Patna) में कुछ ऐसा ही हुआ. पूरा उपन्यास लिखने के बाद, लेखिका का नाम कही नहीं. 'इस्लाह उन-निसा' (Islah-un-Nisa) नाम के उपन्यास (novel) पर नाम छपा, 'मदर ऑफ मोहम्मद सुलेमान, बैरिस्टर' (Mother of Muhammed Sulaiman, Barrister) का. असलियत में ये उपन्यास लिखा था रशीद- उन-निसा (Rasheed-un-Nisa) ने. 1881 में पूरा किया, जिसे 1894 में उनके बेटे के नाम से छापा गया. उस वक़्त उनके बेटे सुलेमान विदेश से बैरिस्टर बन लौटे थे. 

किश्वर नाहिद ने सही कहा था, "एक महिला के लिए लिखना और फिर उसे प्रकाशित करवाना अपने आप में एक क्रांतिकारी कदम था."

क्रांतिकारी कदम सिर्फ उपन्यास लिखना नहीं था, बल्कि रशीद का यह उपन्यास भारतीय महिला का किसी भारतीय भाषा में लिखा गया पहला उपन्यास था (first female Indian novelist). इस उपन्यास की भूमिका कुछ इस तरह लिखी है, 'मुझे इस बात का इल्म है कि हमारे मुसलमान परिवारों में कई तरह की परेशानियां हैं. मैं इन परेशानियों को दूर भी करना चाहती हूं. मगर बनिस्बत इसके कि इसके लिए मैं कोई उपदेश दूं, मैंने यह काम करने के लिए एक दिलचस्प रास्ता चुना है- नॉवेल लिखने का रास्ता. लिखने के साथ उन्होंने समाज कार्य भी किया. उन्होंने लड़कियों के लिए स्कूल खोला, जो बिहार का पहला गर्ल्स स्कूल माना जाता है.

अपनी कलम का इस्तेमाल कर रशीद-उन-निसा ने समाज की रस्मों पर सवाल उठाये और समाज को बदलने का पैगाम देने की कोशिश की. रशीद-उन-निसा 1855 में पटना में शम्सुल उलामा सैय्यद वहीदुद्दीन खान बहादुर के घर जन्मी थी. घर में रहकर ही उन्होंने पढ़ना-लिखना सीखा. उनकी शादी मौलवी मोहम्मद याह्या से हुई जिनकी गिनती पटना के मशहूर रईसों में होती थी. पेशे से मोहम्मद याह्या वकील थे पर साहित्य और संगीत में गहरी दिलचस्पी रखते. उनके भतीजे अली इमाम और हसन इमाम देश के मशहूर बैरिस्टर बने. उन दोनों को 'आधुनिक बिहार के निर्माता' के नाम से जाना जाता है. 

एक जगह रशीद-उन-निसा लिखती है कि,"मुझे खुद उपन्यास लिखना जरूरी लगा क्योंकि खुद औरत होने के नाते मेरा लिखा उपन्यास औरतों को ज़्यादा प्रेरित करेगा." अब तक उनके उपन्यास इस्लाह उन-निसा के भारत और पाकिस्तान में चार संस्करण छप चुके हैं. इंटरनेट पर भी ये उपन्यास आसानी से मिल जायेगा. 1929 में रशीद-उन-निसा दुनिया से चली हमेशा के लिए चली गई. जो लेख समाज ने उनके बेटे के नाम से छापा आज वही लेख उनके गुज़र जाने के बाद भी उनकी पहचान बन रहा है. वे हर उस महिला के लिए प्रेरणा है जो अपने अंदर दबी हुई कहानियां, राय, और विचारों को दुनिया के साथ बांटना चाहती हैं, अपने नाम से पहचान बनाना चाहती हैं. 

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