सब समूह दीदियां सोच में थी, किया क्या जाए? रास्ते थे कभी पापड़, खिलौने, नर्सरी और भी न जाने क्या-क्या. लेकिन कहीं बात नहीं बन पा रही थी. किसी में कुछ खामी तो किसी में कुछ कमी. थोड़े समय बाद सबने सबकुछ भगवान् भरोसे छोड़ दिया. एक दिन जिला पंचायत के अधिकारी गांव में आए. कई तरह के रोजगार के लिए प्लान सुझाए. और भगवान ने अधिकारियों के जरिये राह दिखाई या यूं कहें सुंघाई. बात आकर जमी अगरबत्ती बनाने पर. समूह तो पहले से बना ही लिया था बस अब उसका महकना बाक़ी था. उसे पूरा किया अगरबत्ती बनाने के काम ने.
इस से पहले गांव की महिलाओं का पूरा समय घर में या मजदूरी में बीत रहा था. इस बीच इन महिलाओं अगरबत्ती बनाने और कमाई करने का इरादा हुआ. लेकिन महिलाएं सोच में पड़ गई ,अगरबत्ती कैसे बनाते हैं. कच्चा माल कहां से आएगा. अभी तक केवल दुकानों से अगरबत्ती खरीदने और देव स्थान पर लगाने तक की समझ थी. यह काम कठिन लग रहा था. ऐसे में कई सवालों की झड़ी महिलाओं ने अधिकारियों के सामने लगा दी.इन अधिकारियों ने ट्रेनिंग दिलवाने की बात कही. कच्चा सामान खरीने में मदद और अगरबत्ती बनाने की मशीन दिलवाने की भी बात कही. फिर क्या था, कड़ी मेहनत और पसीना बहा कर एक साल के भीतर इस गांव का नज़ारा बदल गया. न केवल देव स्थान बल्कि इन घरेलु महिलाओं की ज़िंदगी भी अगरबत्ती की खुशबू से महक रही है. यह दिलचस्प कहानी है मध्यप्रदेश के छतरपुर जिले के लखनगुवां गांव की.
अगरबत्तियां पैक करती समूह की महिलाएं (Image Credits: Ravivar Vichar)
लखनगुवां गांव की बबिता पाठक कहती हैं - "मैं शादी के बाद घरेलु महिला बन कर रह गई. कुछ रास्ता सूझ नहीं रहा था. घर में पैसे की जरूरत थी. बारह महिलाओं के साथ मिलकर विंध्यवासिनी स्वसहायता समूह बनाया. SHG से छोटा-मोटा लेनदेन करना सीखे ,पर कुछ नहीं हुआ. "एक दिन जिला पंचायत के आजीविका मिशन के अधिकारी आए और फिर हुई नई शुरुआत. बबिता आगे बताती है -" हमारी कई साथियों के पति इस तरह के काम में साथ देने को तैयार नहीं थे. वे मजदूरी करने के लिए दबाव बनाते रहे. लेकिन हमने अपनी ज़िद से ट्रेनिंग ले ली. फिर बाद में मशीन भी आ गई. कच्चा माल छतरपुर सहित दूसरी जगह से मंगवाया.हम धीरे-धीरे हम सब महिलाएं अगरबत्ती बनाना सीख गए." गांव में सूना पड़ा रहने वाला घर अब गृह उद्योग के नाम से नई पहचान बना चुका है.
अगरबत्ती बनाती महिलाएं (Image Credits: Ravivar Vichar)
कभी संघर्ष करने वाली बबिता पूरे आत्मविश्वास से खुश हो कर आगे बताई है -" हमारे संघर्ष के दिन ख़त्म हुए. हम सभी दीदियां हर महीने पांच हजार रुपए कमा लेती है. हमारे समूह की कई दीदी मजदूरी कर जैसे-तैसे घर चलाती थी ,अब वे भी अब स्वाभिमान से जी रहीं हैं. " लखनगुवां में SHG की ये महिलाएं खुद के पैरो पर खड़ी हो गई. कारोबार में सफलता के आसमान में रोज नई ऊंचाइयां छू रही है.समूह द्वारा तैयार ये अगरबत्ती की खुशबू गांव -गांव फ़ैल रही है.लोग बड़ी आस्था से समूह से अगरबत्तियां खरीद रहे हैं.