'कला व्यक्ति के दिल ओ दिमाग से निकलकर हाथों के ज़रिये दुनिया के सामने आती है. दिल से निकली हुई हर बात कला का रूप ले लेती है. चाहे वो व्यक्ति आम हो या ख़ास. कला और कारीगरी ऐसा वरदान है जो किसी भी व्यक्ति में कोई अंतर नहीं करता. हर कलाकार एक अलग और अनोखी कला का मालिक होता है. शायरी हो, शिल्पकारी हो, कढ़ाई बुनाई हो, या फिर कुछ और. जब भी ऐसी किसी अनोखी कला आँखों के सामने से गुज़रती है तो सोचने में आता है की, जिसने भी इसे बनाया है कितना दिल से बनाया है और अगर उस कलाकार से मिलने का मौका मिल जाए तो बात ही कुछ अलग हो. वैसे तो हर कलाकार विशेष होता है लेकिन उन विशेष में भी अगर विशेष रूप से सक्षम कलाकार मिल जाए तो कहना ही क्या.
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कश्मीर की पारंपरिक कला सोज़नी (सुई) कढ़ाई के काम को भी कुछ ऐसी ही हाथों ने सहेज के रखा है. तारिक अहमद मीर, कश्मीर के एक व्यक्ति जिन्होंने अपने हालत और शारीरिक स्थिति को मजबूरी नहीं बल्कि हथियार बनाया. हर परेशानी का सामना करके अपने जैसे और भी लोगो को साथ जोड़कर, सोज़नी की पारम्परिक कला को कश्मीर के दिलों में ज़िंदा रखा है. तारिक अहमद मीर जन्म से ही मस्कुलर डिस्ट्रॉफी से पीड़ित है, यह एक दुर्लभ न्यूरोलॉजिकल डिसऑर्डर है. लेकिन हिम्मत हौसला और जज़्बा ऐसा की उन्हें यह बिमारी भी किसी भी काम को करने से रोक नहीं पायी.
मीर बताते है कि, इनका भाई भी इसी बिमारी का शिकार है और जरा भी चल नहीं सकता. लेकिन तारिक अपनी इच्छाशक्ति के दम पर थोड़ा चल लेते है. इतना सब होने के बावजूद, आज तारिक एक मिसाल है. जब मीर ने शिक्षक के पद के लिए इंटरव्यू देना चाहा तो उन्हें ये बोल के मना कर दिया गया कि, 'विकलांग लोगों के लिए कोई पद नहीं है.'
ज़ाहिर सी बात है, उन्हें बुरा लगा, कुछ करने की ठानी और समाज को जवाब देने की भी. मीर ने अपने जैसे 60 विशेष रूप से सक्षम कारीगरों को साथ लेकर एक स्वयं सहायता समूह तैयार किया. हमारे देश में ज़्यादातर स्वयं सहायता समूह महिलाओं ने बनाए है. लेकिन ये समूह उन कुछ चुनिंदा समूहों में से एक जो पुरुष चला रहे है. स्पेशल हैंड्स ऑफ़ कश्मीर SHG के ज़रिये न सिर्फ तारिक अपने पैरों पर खड़े है बल्कि एक ऐसी शिल्प कला को बचा रहे है जो एक वक़्त में खात्मे के कगार पर थी . महज़ 5000 रुपयों से शुरू हुआ यह समूह अब लगभग 500 कारीगरों कि ताकत बन चुका है. तारिक बताते है- "उनके समूह में 60 लोग ऐसे है जो एक या दोनों पैरों में लोकोमोटिव विकलांग हैं जबकि कुछ लोगों को देखने में तकलीफ है."
तारिक के काम को आज देश में ही नहीं बल्कि पुरे दुनिया में पहचान. तारिक एक मुस्कान के साथ बताते है - "उन्हें सबसे पहला आर्डर दिल्ली कि एक आर्गेनाईजेशन से 2013 में मिला था जो कि 'एम्ब्रायडरी शाल' के लिए था. " वह गर्व से बताते है - "हमे एक आर्डर यू .एस .ए से भी मिल चुका है और तब से हम में से किसी ने भी पीछे मुड़कर नहीं देखा." तारिक के स्वयं सहायता समूह में ज़्यादातर युवा है और वे सब मिल के अपनी पारम्परिक कला को पूरी दुनिया में सामने ले आये है.
'हार मानना इंसान कि मजबूरी कभी नहीं हो सकती', ये साबित कर दिया तारिक अहमद मीर ने, जिन्होंने इतनी परेशानी होने के बावजूब कभी ये नहीं सोचा कि, 'मैं किसी से कम हूं.' उन्होंने अपनी हर परिस्थिति को बहादुरी से गले लगाया और आज पूरी दुनिया उनके कदम चूम रही है.