एक बार सोचिये, अगर कोई आपको पूरा दिन आंखों पर काली पट्टी बांधने को कहे, तो आप शायद एक दिन तो दूर की बात,1 घंटे के लिए भी मना कर देंगे. क्योकि फिर काम कैसे करेंगे ? अब एक बार उन लोगो के बारे में सोचिए, जो एक दिन नहीं बल्कि हर दिन ऐसे ही ज़िन्दगी जी रहे हैं. परेशानियां हर इंसान की ज़िन्दगी का हिस्सा हैं, अंतर सिर्फ यह होता है कि किसीको छोटी सी दिक्कत भी बड़ी लगती है और किसी को बड़ी से बड़ी दिक्कत भी छोटी. हम जैसे आम लोगों को सीखना हो तो इन विशेष रूप से सक्षम लोगों से सीख ले सकते हैं.
कोई भी कहानी पढ़े, हर कहानी कहेगी, 'मुझे जीने वाला व्यक्ति किसी योद्धा से कम नहीं'. जब ऐसे बहुत सारे योद्धा मिल जाएं तो बात ही कुछ और हो. कहते भी है ना कि साथ हर मुश्किल को आसान कर देता है. बस यही बात ध्यान में रख तारा बाई ने स्वसहायता समूह बनाया जिससे आज वो ऐसे काम कर रही है, जिनके बारे में वो कभी सोच भी नहीं सकती थी. तारा बाई उस महिला का नाम है जिन्होंने 10 महीने की मासूम उम्र में, अपनी आंखें खो दी. इसी वजह से उन्होंने कभी शादी नहीं की. खुद को अपने घर में ही सीमित कर लिया. कुछ छोटे-मोटे काम कर जैसे-तैसे अपना गुज़ारा चला पाती थी.
लेकिन हालात कभी एक जैसे नहीं रहते. तारा बाई के साथ भी कुछ ऐसा ही हुआ. एक लोकल NGO 'तरुण संस्कार' ने उन्हें अपना खुद का काम करने में मदद की, और आज वो अपने ही जैसी सैकड़ों महिलाओं के साथ मिलकर सब्ज़ी उगाने और बेचने का काम करतीं है.
वो कहती है कि, "मैं सब्ज़ियों और फलों को छूकर ही उनके बारे में सब बता देती हूं." हम जैसे आम लोगों के लिए तो बिना देखे किसी भी सब्ज़ी या फल का पता लगाना नामुमकिन है, लेकिन एक महिला जिसे दिखाई नहीं देता, वो ये काम कितनी आसानी से कर रही है. और ये सिर्फ एक कहानी है, ऐसी ना जाने कितनी कहानियां है जो आपको खुद कि काबिलियत पर सवाल करने पर मजबूर कर देगी.
रज्जो बाई भी इन्ही के समूह की एक महिला है जिन्होंने 6 साल की छोटी सी उम्र में ही अपनी आँखें खो दी थी. वो कहती है, " मैंने कभी नहीं सोचा था कि मैं सब्ज़ी बेच के अपना गुज़ारा कर सकूंगी. पार्वती बर्मन भी इसी समूह में है और सालों से चलने फिरने में मुश्किल का सामना करती है लेकिन समूह का साथ और हौसला मिला तो आज अपनी गुज़र बसर अच्छी तरह कर रही है .
इन सब महिलाओं के जीवन में स्वसहायता समूह का बहुत बड़ा हिस्सा है, क्योंकि इनकी ज़िंदगियां अपने जैसे लोगो के साथ जुड़ कर ही बदली है. ये थी मध्य प्रदेश के बुधवा और जॉली गांव के स्वसहायता समूह की बात. ऐसी ही कहानियां और हिम्मत की दास्तान पुरे देश में फैली है जहां विकलांग महिलाएं अपने SHG चलाकर मिसाल कायम कर रही हैं. जैसे तमिलनाडु के तूतीकोरिन में कुछ विशेष रूप से सक्षम लोगो ने एक कैंटीन खोली। इस स्वसहायता समूह के सदस्यों को होटल मैनेजमेंट की ट्रेनिंग वहां के प्रशासन ने दी. और आज पूरे इलाके में इनकी केंटीन की चर्चा है.
दक्षिण भारत से रुख करते है पूर्व की तरफ जहां झारखण्ड के रांची शहर में बिरसा विकलांग स्वसहायता समूह ने ज़ोरदार तरीकों से अपनी मांगे सरकार के सामने रखीं और अपना अधिकार लेने में कामयाब हुईं. इन कुछ उदाहरणों से आप समझ ही गए होंगे कि कैसे विशेष महिलाएं अपना SHG बनाकर कामयाबी का परचम लहरा रही हैं. देश भर में ऐसे न जाने कितने स्वसहायता समूह हैं जो विशेष रूप से सक्षम लोगो ने बनाए और अपना हर अधिकार हक़ से कमाया. दुनिया इन्हें चाहे कुछ भी बोले लेकिन ये सिर्फ एक बात ही बोलते है,"हम किसी से कम नहीं."