इतिहास गवाह है, देश को आज़ाद करने की लड़ाई में अंग्रेजों के खिलाफ महिलाएं भी उतने ही जोश और जज़्बे के साथ खड़ी थी जितना कोई और। रानी लक्ष्मीबाई, बेगम हज़रत महल, मैडम बीकाजी कामा, ये नाम तो सुनें है, लेकिन ऐसी भी बहुत महिलाएं है जिनका नाम इतिहास के पन्नों में भले ही दर्ज ना हुआ हो, लेकिन उनके हिम्मत और जज़्बे की बातें लोग आज भी याद करतें है। दलित समुदाय की ऐसी ही एक महिला योद्धा ऊदा देवी, लखनऊ के नवाब वाजिद अली शाह की बेगम हज़रत महल की सुरक्षा में तैनात थीं जबकि उनके पति मक्का पासी नवाब की सेना में थे. ऊदा देवी का नाम भले ही देश में सब ना जानते हो, लेकिन उत्तर प्रदेश की राजधानी लखनऊ के आसपास के इलाक़े में इनकी बहादुरी की कहानी बताने वालों की लिस्ट बहुत लंबी है.
समाजशास्त्री प्रोफ़ेसर बद्री नारायण तिवारी बताते हैं, "ऊदा देवी, हज़रत महल बेगम की सेना का हिस्सा थीं. वो अपने पति के जीवन काल में ही सैनिक के रूप में शिक्षित हो चुकी थीं. ऊदा देवी पहले वहां पर सेविका और सैन्य सुरक्षा दस्ते की सदस्य थीं." साल 1857 में भारत में जब अंग्रेज़ों के ख़िलाफ़ पहला विद्रोह हुआ और वाजिद अली शाह को अंग्रेजों ने कलकत्ता से निकाल दिया. उस वक़्त विद्रोह का परचम उनकी बेगम, हज़रत महल, ने उठाया. लखनऊ के पास चिनहट नाम की जगह पर नवाब की फौज़ और अंग्रेजों के बीच टक्कर हुई और इस लड़ाई में ऊदा देवी के पति मारे गए. पति की मौत का सदमा ऊदा देवी के लिए प्रेरणा बन गया और उन्होंने वीरता की मिसाल पेश कर सभी को दंग कर दिया। वीरांगना ऊदा देवी ने 36 अंग्रेज़ों को पीपल के पेड़ पर चढ़ कर मारा. जब अंग्रेजो के कप्तान वायलस और डाउसन वह पहुंचे तब अंग्रेजों की लाशें देखकर दंग रह गए.
ऊदा देवी ने अंतिम सांस तक 36 अंग्रेज़ सिपाहियों को मार गिराया. वीरता की यह कहानी लोककथाओं और जनस्मृतियों में ज़िंदा रहीं. लेकिन वक्त के साथ इस वीरता को अंजाम देने वाली ऊदा देवी का नाम धुंधला पड़ गया है। ऊदा देवी के वंशज कमल कहते हैं- "वीरांगना ऊदा देवी का राजनीतिक इस्तेमाल तो नहीं हुआ लेकिन सामाजिक चेतना के तौर पर उनका बहुत बड़ा योगदान है। अगर सरकार चाहेगी तो पाठ्यक्रम में शामिल करके उन्हें सम्मान दे सकती है." ऊदा देवी की कहानी ने आज़ादी की लड़ाई में दलितों और औरतों की भूमिका को रोशन किया है. ये एक मिसाल भारत के गणतंत्र में असली गण की पहचान कराती है.