लोहे के बड़े, भारी, और मोटे टुकड़ों को पीटकर नारायणी देवी उसे मनचाहा आकार देने का हुनर रखती है. उत्तराखंड के चंपावत जिले की लोहाघाट तहसील की ऐसा करने वाली ये इकलौती महिला नहीं है. कुछ साल पहले तक ये लोहाघाट पुरुषों के लौहा पीटने के कौशल और ताकत के लिए जाना जाता था. पांच स्वयं सहायता समूहों (Self Help Groups- SHG) की 40 महिलाओं के प्रगति ग्राम संगठन ने लोहाघाट में अपनी जगह बनाई. ये धातु शिल्प के इतिहास में एक बदलाव को चिह्नित करता है.
लोहाघाट के रायकोट कुंवर गांव की निवासी और संगठन की अध्यक्ष देवी बताती है, "परंपरागत रूप से, पुरुष उत्पाद बनाते थे और महिलाएं उन्हें गांव-गांव बेचने जाती थीं. स्टील, एल्युमीनियम और नॉन-स्टिक कुकवेयर की लोकप्रियता के कारण लोहे के उत्पादों की मांग में गिरावट आई. हम केवल एक या दो तवे ही बेच पाते थे." अधिकारियों ने राष्ट्रीय ग्रामीण आजीविका मिशन के तहत स्वयं सहायता समूहों को बढ़ावा देना शुरू किया. इस मौके का फ़ायदा उठाते हुए देवी ने छह अन्य महिलाओं के साथ पूर्णागिरी एसएचजी का गठन किया. शुरुआत में महिलाएं लोहे को गर्म करने और उसे ढालने से डरती थीं. पुरुषों से मदद मांगती. जैसे-जैसे वे हथौड़े और निहाई का इस्तेमाल करने में बेहतर होते गईं, ज़्यादा से ज़्यादा SHG महिलाएं ये कौशल सीखने में रूचि लेने लगीं.
पांच SHG संगठन में शामिल हो गए और कड़ाही, तवे समेत कुदाल, चाकू और त्रिशूल जैसे कृषि उपकरण बड़े पैमाने पर बनाने लगे. समूह को तब बढ़ावा मिला, जब 2020 में राज्य सरकार ने विशिष्ट ग्रामीण व्यवसायों को बढ़ावा देने के लिए चंपावत में एक विकास केंद्र शुरू किया. केंद्र में लोहे की कटाई और ढलाई के लिए मशीनें लगाई गई जिसे अब संगठन चलाता है. मार्केटिंग एक बड़ी चुनौती थी. लोग स्टील, एल्युमीनियम और नॉन-स्टिक कुकवेयर में मिले रसायनों के बारे में जागरूक हुए और वापिस लोहे की ओर लौटने लगे. लोहे के उत्पादों को सरस मेलों, व्यापार मेलों और ऑनलाइन प्लेटफॉर्म के ज़रिये प्रदर्शित करना और बेचना शुरू किया.
स्वयं सहायता समूहों को राज्य के कृषि विभाग से 2-3 लाख रुपये के औज़ारों के ऑर्डर मिलने शुरू हुए. इसके अलावा, स्कूलों और आंगनवाड़ी केंद्रों में मध्याह्न भोजन के लिए स्वयं सहायता समूहों से रसोई के बर्तन खरीदे. इन प्रयासों से समूह की आय में बढ़ोतरी हुई. पूर्णागिरी एसएचजी ने 2017 में 60,000 रुपये से बढ़कर 2022 में 2 लाख रुपये कमाए, जबकि संगठन ने पिछले साल 7-8 लाख रुपये कमाए. ये महिलाएं पहले पुरुषों के बनाये उत्पादों को घर-घर जाकर बेचा करती थीं. लोहे के उत्पादों की मांग कम हो जाने पर इनकी आय का कोई ज़रिया नहीं बचा था. आजीविका मिशन की मदद और अपने प्रयासों से ये महिलाएं खुद का रोज़गार शुरू कर पाईं और पुरुषों के माने जाने वाले पेशे में अपनी जगह बनाई.