डिंडोरी के समूहों ने कोदो कुटकी को अंतर्राष्ट्रीय मंच पर पहुंचाया

कोदो-कुटकी के उत्पादन के बाद आदिवासी परिवार आर्थिक रूप से मजबूत भी हुए हैं. " एक समय था जब हम स्थानीय सूदखोरों के चंगुल में फंसे रहते थे. कई लोग अपने गहने भी  सूदखोरों के चक्कर में गंवा देते थे. लेकिन यहां अब कोई उधार नहीं लेता.

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कोदो कुटकी के पैकेट लेकर बैठी महिलाएं (Image Credits: Ravivar vichar)

ये उच्च पोषक तत्वों का खजाना हैं.पिछले कई दशकों से ये मध्य प्रदेश के आदिवासी जिले डिंडोरी के पथरीले बंजर दिखने वाले भू-भाग में छिपा था.आदिवासी खुद इसका आधा-अधूरा उपयोग कर पाते थे. हम बात कर रहे हैं कोदो और कुटकी जैसे कल तक तुच्छ समझे जाने वाले अनाजों की.ये पोषण तत्वों से भरपूर है, उच्च स्तर प्रोटीन, फाइबर तरह-तरह के मिनरल्स और एंटी ऑक्सीडेंट पाए जाते हैं. पिछले एक दशक में यहां के गोंड और बैगा आदिवासियों  ने कल तक उपेक्षित इन अनाजों की खेती को एक तरह से पुनर्जीवित कर दिया है.    

डिंडोरी जिले के 41 गांवों की बैगा और गोंड महिलाओं  के स्वसहायता समूहों ने तेजस्विनी कार्यक्रम के जरिए कोदो-कुटकी की खेती शुरू की. वर्ष 2012 में 1,497 महिलाओं ने प्रायोगिक तौर पर 748 एकड़ जमीन पर कोदो-कुटकी की खेती की शुरुआत की थी. समूहों की महिलाओं ने राज्य की मदद से आधुनिक तरीके से खेती करना शुरू की. इससे 2,245 क्विंटल उत्पादन हुआ. इससे प्रेरणा लेकर 2013-14 में 7,500 महिलाओं ने 3,750 एकड़ में कोदो-कुटकी की खेती की और15 हजार क्विंटल कोदो-कुटकी का उत्पादन हुआ. कोदो-कुटकी के बढ़ते उत्पादन को देखते हुए नैनपुर में एक प्रसंस्करण यूनिट ने भी काम करना शुरू कर दिया है. बैगा महिलाओं के फेडरेशन द्वारा संचालित इस कोदो-कुटकी कार्यक्रम को वर्ष 2014 में देश का प्रतिष्ठित राष्ट्रीय सीताराम राव लाइवलीहुड अवार्ड से भी नवाजा गया.

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SHG महिलाएं अपनी फ़सल के साथ (Image Credits: Ravivar vichar)

 

हालांकि की शुरुआत में काफी दिक्क्तें आई क्योंकि ये वह वक़्त था जब आदिवासियों को कोदो-कुटकी उगाने में रूचि नहीं रह गयी थी. बाजार में ये बहुत कम दाम में बिकता था.किसानों को  कोदो कुटकी की वैज्ञानिक तरीके से   खेती करनी नहीं आती थी और पारम्परिक तरीके से खेत जोतने में  उत्पादन काफी काम था.समाज में भी लोगों  को इस अनाज की न्यूट्रीएंस का वैल्यू जरा भी अंदाज़ नहीं था. और इन्ही कारणों  का नतीजा था कि किसान धान की खेती की तरफ मुंह मोड़ने लगे थे. लेकिन स्वसहायता समूह  और इन समूह की फेडरेशन के कारण सब कुछ बदल गया आज  डिंडोरी जिले के 528 गांव  के 58 हज़ार से ज्यादा आदिवासी मिल कर 39000 हेक्टेयर भूमि पर  35000 मीट्रिक टन से ज्यादा कोदो-कुटकी का उत्पादन कर रहे हैं. 

कोदो मुख्य रूप से उष्णकटिबंधीय अफ्रीका में उगाया जाने वाला अनाज है.एक अनुमान के मुताबिक 3,000 साल पहले इसे भारत लाया गया    और  इसलिए ही कोदो  को भारत का एक प्राचीन और ऋषि अन्न माना जाता था. कोदो-कुटकी मधुमेह नियंत्रण, गुर्दो और मूत्राशय के लिए लाभकारी  भी माना जाता है. यह रासायनिक उर्वरक और कीटनाशक के प्रभावों से भी मुक्त है. कोदो-कुटकी हाई ब्लड प्रेशर के रोगियों के लिए रामबाण बताया जाता है.  इसमें चावल के मुकाबले कैल्शियम भी 12 गुना अधिक होता है. शरीर में आयरन की कमी को भी यह पूरा करता है. इसके उपयोग से कई पौष्टिक तत्वों की पूर्ति होती है.

वर्ष 2009 में जर्नल ऑफ एथनोफार्माकोलोजी में प्रकाशित एक शोध कोदो को मधुमेह के रोगियों के लिए स्वास्थ्यकर पाता है.  वहीँ वर्ष 2014 में प्रकाशित पुस्तक हीलिंग ट्रडिशंस ऑफ द नॉर्थवेस्टर्न हिमालयाज के अनुसार कोदो बुरे कोलेस्ट्रोल घटाने में भी मददगार साबित होता है.

अब और क्या चाहिए. देखते ही  देखते इसकी ख्याति भारत की मेट्रो सिटीज और अंतर्राष्ट्रीय बाज़ारों में फ़ैल गयी.आदिवासियों को अपने उत्पादन का अच्छे दाम मिलने लगे.  

 

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कोदो (Image Credits: Ravivar vichar)

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कुटकी (Image Credits: Ravivar vichar)

चंदा महिला स्वसहायता समूह की अंजना मरावी बताती हैं कि- " जितने भी परिवार इसकी खेती कर रहे हैं वह अपना उत्पादन घर पर ही  स्टोर करते हैं. फिर समूहों  के फेडरेशन की मदद  से इससे बाजार में बेच दिया जाता है.हम बाजार में अच्छे रेट का इंतज़ार करते हैं जो समूह   बनने क पहले संभव नहीं था". 

समूह की महिलाएं अपने उत्पादन का कुछ अंश साल भर अपने इस्तेमाल के लिए भी रख लेती हैं. ज्यादातर आदिवासी परिवारों क पास  पांच   एकड़ या उससे कम जमीन ही है.

समूह की अन्य  महिला कार्यकर्ता फूलवती बताती हैं, " कोदो  थोड़ा बड़ा होता है और  उसका रंग भूरा  होता है वहीं कुटकी छोटा और काले रंग का होता है.पहले हमें इसका रेट 7-8 रूपए प्रति किलो मिलता था और इसलिए किसान इसका उत्पादन खत्म करते जा रहे थे."

"लेकिन स्वसहायता समूह बनने के बाद जैसे चमत्कार हो गया.अब कोदो की कीमत 30 -35 रूपए प्रति किलो कुटकी 40 -45  प्रति किलो  के  दाम मिल जाते हैं."

कोदो-कुटकी के उत्पादन के बाद आदिवासी  परिवार आर्थिक रूप से मजबूत भी हुए हैं. " एक समय था जब हम स्थानीय सूदखोरों के चंगुल में फंसे रहते थे. कई लोग अपने गहने भी  सूदखोरों के चक्कर में गंवा देते थे. लेकिन यहां अब कोई उधार नहीं लेता. कोदो-कुटकी से हमारी  आय में खासी वृद्धि हो गयी है", समलिया,गोंड आदिवासी  महिला ,रानी दुर्गावती स्वसहायता समूह की सुनीता और बजरंग महिला समूह की तेजस्वनी कहती है," डिंडोरी की कोदो-कुटकी देश भर में हमारी दीदियों  स्वसहायता समूहों  की पहचान बन चुकी है. हमें गर्व है की हम लोग     देश में  पोषक आहार सप्लाई कर देश निर्माण का काम कर रहे हैं."

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कोदो कुटकी की प्रोसेसिंग यूनिट (Image Credits: Ravivar vichar)

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