वारासिवनी की सिल्क साड़ी को मिला 'GI टैग'

मध्य प्रदेश में वारासिवनी की रेशम से बनी सिल्क साड़ी को हाल ही में केंद्रीय वाणिज्य मंत्रालय के इंडस्ट्री प्रमोशन एंड इंटरनल ट्रेड ने 'GI (जिओग्रफ़िकल इंडिकेशन) टैग' प्रदान किया है। अब बालाघाट की सिल्क साडि़याें की विश्व स्तर पर पहचान बनेगी.

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रिसिका जोशी
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Image Credits: Nai Duniya

भारत के हर कोने में आपको ना जाने ऐसे कितने कलाकार मिल जाएंगे, जो अपनी बुनाई के लिए उस क्षेत्र में जाने जाते हो. बड़ी बात यह है की हर प्रान्त की अलग पैटर्न शैली है जैसे, उत्तर प्रदेश में चिकनकारी और ज़रदोज़ी, तो राजस्थान में गोटा और डंके का काम. मध्य प्रदेश में बंजारा एम्ब्रायडरी, तो गुजरात में खारीक और पाको. हर राज्य का अपना एक अलग रंग और ढंग है क्यूंकि हर कलाकार की अपनी एक अलग पहचान है. ये सच है की कलाकारों की शिल्पकारी को इनके क्षेत्र में ज़्यादातर सब पहचानते है, लेकिन सब चाहते है की उनको पूरी दुनिया जाने. और यह तभी संभव है जब देश की सरकार उन्हें और उनके काम को पहचाने. 

मध्य प्रदेश में भी ऐसे ही कलाकार जिनकी वारासिवनी की रेशम से बनी सिल्क साड़ी को हाल ही में केंद्रीय वाणिज्य मंत्रालय के इंडस्ट्री प्रमोशन एंड इंटरनल ट्रेड ने '(जिओग्रफ़िकल इंडिकेशन) GI टैग' प्रदान किया है. वारासिवनी की सिल्क साड़ी को जीआइ टैग मिलने से उन बुनकरों के चेहरे पर खुशी झलक थी, जिनका परिवार पीढि़यों से सिल्क साडि़यां तैयार कर रहा है. 'जीआइ टैग' मिलने के बाद अब बालाघाट की सिल्क साडि़याें की विश्व स्तर पर पहचान बनेगी और इसकी ब्रांड वैल्यू बढ़ेगी. 

जिले में वारासिवनी, मेहंदीवाड़ा, हट्टा, बोनकट्टा, एरवाघाट, टेकाड़ी जैसे स्थानों में 150 परिवार से ज़्यादा पीढि़यों से सिल्क साडि़यां बना रहे हैं. लकड़ी से बनी सालों पुरानी हैंडलूम मशीन से बुनकर रंग-बिरंगी और खूबसूरत डिजाइन की साडि़यां तैयार करते हैं. दो से तीन दिन की कड़ी मेहनत और बारीक काम के बाद एक साड़ी तैयार होती है. जिले के बुनकर मप्र शासन के कुटिर एवं ग्रामोद्योग विभाग के तहत आने वाले जिला हाथकरघा कार्यालय, हस्तशिल्प विकास निगम तथा स्वयं सहायता समूह  से जुड़कर सिल्क साडि़यां बना रहे हैं. इसके एवज में एक बुनकर को एक साड़ी बनाने के लिए एक हजार से 1200 रुपए अथवा प्रति मीटर के हिसाब से भुगतान होता है.

ग्रामोद्योग विस्तार अधिकारी शिवकुमार डेकाटे ने बताया कि- "बालाघाट में हैंडलूम उद्योग सौ साल पुराना है. वारासिवनी क्षेत्र में वर्ष 1990 से रेशम की साडि़यां बनाने का काम किया जा रहा है." इन साडि़यों का कलर काम्बिनेशन, टेक्सचर, प्राकृतिक सिल्क इसकी खासियत है. जिले में बनने वाली सिल्क साड़ी के धागे की बुनकर धुलाई करते हैं, जिससे उसका गोंद निकल जाता है और ये साडि़यां लंबे समय तक सुरक्षित रहती हैं. चंदेरी, कोलकाता, चेन्नई में वारासिवनी की सिल्क साड़ी की मांग है. इसके अलावा दिल्ली, जयपुर, हैदराबाद, भोपाल, इंदौर में लगने वाली प्रदर्शनी में भी वारासिवनी की सिल्क साड़ियां प्रदर्शित की जाती हैं. 

अब बालाघाट जिले की साड़ी और इसे बनाने वाले बुनकरों को अंतरराष्ट्रीय बाजार में पहचान मिलेगी. यह इन बुनकरों के लिए बहुत बड़ी बात है. भारत में ऐसे ना जाने कितने कलाकार है जो अपनी काम को पूरी दुनिया के सामने लाना चाहते है बस उन्हें कोई राह नहीं दिखती. हर राज्य की सरकार को ऐसे बुनकरों को सामने लाना चाहिए और उन्हें सराहना देनी चाहिए. देश के कल्चर और संस्कृति को बढ़ावा देने का यह उत्तम तरीका है. 

 

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