सड़क किनारे लाल नारंगी रंग की छठा बिखरी हुई है. साल के इस वक़्त जैसे दुनिया में चेरी ब्लॉसम होता है, वैसे ही मध्य भारत को पलाश रंगीन कर देता. होली के रंगीन कैनवास को प्रकृति भी पलाश के लाल नारंगी पीले रंग इस रंग देती है. पलाश को लोकल बोली में टेसू भी कहते हैं. फायर ऑफ़ फारेस्ट कहे जाने वाले पलाश या टेसू के पेड़ों इस मौसम को और खुशनुमा बनाते है. इनमें एक ख़ास तरह के सफ़ेद कलर के होते हैं, जिन्हे महादेव को चढाने की प्रथा है .लेकिन कटते हुए जंगलों के साथ ये पेड़ दुर्लभ हो गए. उत्सव और खुशियों का प्रतीक माने जाने वाले पलाश के पेड़ों को बचाने के लिए खास तरह के इंतजाम किए गए हैं. निमाड़ इलाके में सतपुड़ा के घने जंगलों में इन दिनों पेड़ पलाश के फूलों से लदे कुछ खास पेड़ को स्पेशल सुरक्षा दी गई. यह व्यवस्था खरगोन के वन विभाग ने की. इस पेड़ को काटने से बचने के लिए आसपास फेंसिंग कर दी गई. जिससे इसे बचाया जा सके. यहां सिर्फ लाल-नारंगी कलर के खूबसूरत दिखने वाले फूलों के पेड़ बचे हैं. सतपुड़ा और खरगोन जिले के इक्का -दुक्का जगह पर ही पीले रंग के खूबसूरत पलाश के पेड़ बचे हैं. वन माफियों से बचाने के लिए यह सब कयावद की गई है. पीला रंग दोस्ती, अपनत्व और पॉसिटिविटी का प्रतीक माना जाता है.
होली के पहले पलाश के पेड़ पूरी तरह से फूलों से लद जाते हैं. वनस्पति शास्त्री डॉ पुष्पा पटेल कहती हैं -"जंगल में मेडिसनल प्लांट सर्च के दौरान देखा कि सतपुड़ा के घने जंगल कम हो गए.सबसे ज्यादा पीले रंग के खिलने वाले पलाश के पेड़ लगभग पूरे कट गए. उन्होंने फारेस्ट विभाग को सूचना दी. वन विभाग ने इसे दुर्लभ श्रेणी में मान कर पेड़ के आसपास तारों कि फेंसिंग करा दी. आसपास रहने वाले ग्रामीण खुद इस पेड़ कि रखवाली कर रहे हैं.
पलाश के फूल और उसकी खूबसूरती को होली के उत्सव और रंगो के लिए जाना जाता है. इससे परंपरागत प्राकृतिक रंग तैयार किए जाते हैं. एमवाय हॉस्पिटल के डर्मेटोलॉजिस्ट और प्रोफेसर डॉ राहुल नागर ने कहा - " यह नॉन केमिकल है. इससे तैयार रंग से होली खेलना चाहिए. यह स्किन के लिए पूरी तरह सेफ है. गीतकार हरीश दुबे कहते हैं- "टेसू के फूलों और रंगो का कई गीत और रचनाओं में उपयोग कर उसे और लोकप्रिय बनाया जाता है". होली त्यौहार के ख़त्म होने के साथ ये फूल भी पेड़ों से झड़ जाते हैं.