SHG के 30 साल.... अब छूना है आसमान

स्वसहायता समूहों के आरंभ को 30 वर्ष पूरे हो गए है. आज देश भर में लगभग 90 लाख महिला स्वसहायता समूह कार्य कर रहें हैं. यह आंदोलन एक तरह से नागरिकों का आंदोलन है. उम्मीद की जा सकती है कि लोकतंत्र को मज़बूत करने की इस प्रक्रिया के आने वाले साल और सशक्त होंगे.

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शिरीष खरे
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30 years SHG status india NRLM scheme

Photo Credits: Ravivar vichar

स्वसहायता समूहों की शुरुआत को वर्ष 2022 में 30 वर्ष पूरे हो चुके है. आज भारत में लगभग 90 लाख महिला स्वसहायता समूह हैं. ये सभी समूह किसी न किसी बैंक से जुड़े हैं. ये महिलाएं उस खाते में बड़ी मात्रा में बचत और क़र्ज़ ट्रांसफर कर रही हैं. देश भर में ऐसे समूहों में दस करोड़ से अधिक महिलाएं शामिल हैं.

देखा जाए तो यह प्रयोग 1992 में शुरू हुआ था. प्रयोग की औपचारिक शुरुआत 1987 और 1992 के बीच कर्नाटक में एक गैर सरकारी संगठन MYRADA द्वारा किए गए एक प्रयोग में निहित है. उस समय स्वसहायता समूह शब्द का अस्तित्व नहीं था. दरअसल, यह एक प्रारंभिक प्रयोग था जिसमें आत्मीयता समूह का अर्थ है गांव की 15 या 20 महिलाओं का एक समूह जो एक-दूसरे को जानती हैं, हर महीने या पखवाड़े में एक बार एक साथ मिलती हैं और एक निश्चित राशि बचाती हैं.

अहम बात यह है कि इसकी शुरुआत सचमुच पांच और दस रुपए की बचत से हुई थी. यह ध्यान रखना महत्वपूर्ण है कि समूह को किसी भी सरकारी योजना को उखाड़ फेंकने के लिए नहीं बनाया गया था. यह योजना इस विचार के साथ शुरू की गई थी कि जो पूंजी हमारे दैनिक जीवन के लिए उपयोग की जा सकती है. यह पूंजी हमारी अपनी छोटी-छोटी बचतों से ही नहीं बल्कि इन बचतों के दीर्घकालिक संचय से भी उपलब्ध होगी. इसका एक और कारण यह है कि सहकारी समितियां या सार्वजनिक क्षेत्र के बैंक महिलाओं को दरवाज़े पर पैर रखने की अनुमति देने के लिए वस्तुतः अनिच्छुक थे.

पांच सौ संगठनों से शुरू हुआ प्रयोग

पांच साल के प्रयोग के धीरे-धीरे सफल होने के बाद, शिखर बैंक नाबार्ड ने 1992 में इन समूहों और सरकारी स्वामित्व वाले बैंकों को जोड़ने का कार्यक्रम संभाला. इसे एसएचजी बैंक लिंकेज प्रोग्राम के नाम से जाना जाता है. शुरुआत में, नाबार्ड के पास केवल 500 समूह स्थापित करने का बहुत सीमित लक्ष्य था. इस उद्देश्य के लिए नाबार्ड और उसके संबद्ध संगठनों और गैर सरकारी संगठनों ने जिले में गैर सरकारी संगठनों के प्रशिक्षण, बैंकों के अधिकारियों के प्रशिक्षण और इस प्रकार बड़ी मात्रा में जागरूकता बढ़ाने का काम किया है. लगभग इसी समय रिजर्व बैंक ने भी इस प्रयोग की ओर ध्यान देना शुरू किया. इस तरह बैंकों ने एक महत्वपूर्ण नीति पेश की ताकि अनौपचारिक और वे समूह जो आधिकारिक तौर पर पंजीकृत नहीं हैं, बैंक के माध्यम से अपनी बचत का कई गुना ऋण प्राप्त कर सकें.

सन् 2000 के बाद पिछले 22 वर्षों में पूरे भारत के सभी राज्यों में चक्रवृद्धि ब्याज के साथ स्वसहायता समूहों का काम तेज़ी से बढ़ा है. पहले दस-पंद्रह साल तक यह सवाल उठता रहा कि क्या ये समूह सिर्फ़ दक्षिणी राज्यों में ही काम कर रहे हैं. हालांकि, पिछले दस-पंद्रह वर्षों में मध्य प्रदेश, उड़ीसा, उत्तर प्रदेश, राजस्थान, बिहार और पूर्वांचल में गैर सरकारी संगठनों और बैंकों के माध्यम से छोटे गांवों और जिलों में बड़ी संख्या में ऐसे स्वसहायता समूह स्थापित किए गए हैं. कई राज्य सरकारों ने इन सभी अभियानों में और योगदान दिया है.

कई राज्यों में उदाहरण के लिए तमिलनाडु, मध्य प्रदेश, महाराष्ट्र, महिला आर्थिक विकास निगम (MAVIM) ने भी सहकारी आंदोलन को बड़े पैमाने पर समर्थन दिया. यह सब सहयोग प्रदान करते हुए बैंक भी इस प्रकार उत्साह दिखाते हुए आगे आए. उन्होंने देखा कि स्वसहायता समूहों में महिलाओं को ऋण देने के बाद पुनर्भुगतान दर लगभग 98-99% थी और यह समय पर थी. इसलिए, उन्हें देर से ही पता चला कि इन समूहों को बैंक से जोड़ना व्यवसाय के लिए भी फायदेमंद है.



राष्ट्रीय स्तर पर हुए रचनात्मक आंदोलन

दुर्भाग्य से, एक बार जब सरकार ने प्रयोग को अपना बताया और लक्ष्य निर्धारित किया कि कितनी संख्या में स्वसहायता समूह हर साल बनने चाहिए तो इससे स्थिति चुनौतीपूर्ण हो गई. एक ओर, स्वैच्छिक संगठनों द्वारा गठित मज़बूत सामाजिक और संस्थागत नींव वाले स्वसहायता समूह थे. दूसरी ओर, सरकारी योजनाओं के आवश्यक उद्देश्यों की पूर्ति के लिए अनेक स्थानों पर कुछ ‘सरकारी बचत समूह’ भी स्थापित किए गए. उस स्थान पर बचत शब्द की जगह ऋण शब्द ले लिया गया. इसलिए स्वसहायता समूह कई राज्यों में बचत और ऋण के रूप में जाने जा रहे हैं.

इसके बावजूद पिछले 30 वर्षों में, देश ने इन स्वसहायता समूहों के माध्यम से बड़े पैमाने पर राष्ट्रीय आंदोलन का अनुभव किया है. दिलचस्प बात यह है कि स्थापना के बाद से नाबार्ड ने हर साल स्वयं सहायता समूहों की वृद्धि की समीक्षा करते हुए एक बहुत व्यापक वार्षिक प्रगति पुस्तक प्रकाशित की है. इसलिए, इन स्वसहायता समूहों की वृद्धि कैसे, कब और किस राज्य में हुई, इसके बारे में बड़ी मात्रा में शोध सामग्री उपलब्ध है.

इस तरह, पांच सौ समूहों से शुरू हुआ यह स्वसहायता समूह प्रयोग आज न केवल भारत में बल्कि विदेशों में भी कई देशों में तेज़ी से फैल चुका है. पायलट टू स्केल प्रयोग को बढ़ाने के लिए कम से कम 20 से 30 साल की अवधि आवश्यक है, कोई रियायत या शॉर्टकट नहीं है, ऐसा महिला स्वसहायता समूहों के काम ने दिखाया है.

सब जगह नज़र आता है बदलाव

शुरुआती दिनों में कई ग़ैर-सरकारी संगठनों ने सरकार की नीति को पार करते हुए सहायता समूहों के निर्माण का काम अथक रूप से जारी रखा, जिसे शुरू में कुछ संदेह के तौर पर देखा गया था, सभी बैंकों और रिजर्व बैंक ने बहुत सतर्क रवैया अपनाया था. धीरे-धीरे सभी सरकारी अधिकारियों, बैंक अधिकारियों और यहां तक कि रिज़र्व बैंक को भी यह एहसास हो गया कि अगर उन्हें आखिरी पायदान पर पहुंचना है तो यह किसी भी सरकारी तंत्र में संभव नहीं है. उन तक पहुंचना तभी आसान होगा जब लोग साथ आएंगे और अपने दम पर प्रयास करेंगे.

पिछले 30 वर्षों में इन तमाम आंदोलनों से महिलाएं सभी मोर्चों पर तेज़ी से आगे बढ़ रही हैं. पुरानी आंध्र प्रदेश सरकार में दोनों दलों के मुख्यमंत्रियों ने रियायतें खत्म करके स्वशासी समूहों की सभी महिलाओं को अपना मतदाता बनाने की कोशिश की. अनेक महिलाएं स्वयं सहायता समूहों के माध्यम से ग्राम पंचायत एवं जिला परिषद की गतिविधियों में भाग ले रही हैं. कई गांवों में सास की उम्र की महिलाएं 25 से 30 रुपये के बचत समूह की बहू यानी दूसरी पीढ़ी के हाथों में जाने के बाद बड़े व्यवसायों की मालिक बन गई हैं.

30 वर्षों का एक लंबा आंदोलन है जो विकास प्रक्रिया की प्रभावशीलता को बढ़ाता है, गांव-गांव लोकतांत्रिक प्रक्रियाओं को शामिल करता है. साथ ही सामाजिक, राजनीतिक और आर्थिक क्षेत्रों में छोटे बदलाव करता है और शुरुआत करता है एक बड़ा क्रांतिकारी परिवर्तन के लिए. यह आंदोलन एक तरह से नागरिकों का आंदोलन है. इस मौके पर इस उम्मीद में कोई आपत्ति नहीं है कि लोकतंत्र को मज़बूत करने की इस प्रक्रिया के अगले 30 साल मज़बूत और  मज़बूत होंगे.

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