अब हम हैं बॉस…

आदिवासी महिलाओं की स्थिति बद्दतर है लेकिन ऐसी निराशाजनक स्थितियों में भी  SHG ने इन्हें भारत में चल रही महिलाओं की आर्थिक क्रांति का हिस्सा बनाया. ये SHG आदिवासी महिलाओं के सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक और सांस्कृतिक मज़बूती की वजह बन सकेंगे.  

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'सरकारी' यह शब्द सुनते ही आदिवासी इलाकों की महिलाओं को कुछ अनमना सा लगता था. चक्कर पर चक्कर, कागज़ पर कागज़ , रुतबे का ज़ोर यह सब आंखों के सामने घूम जाता. सरकारी दफ़्तरों की सीढ़िया चढ़ना तो दूर की बात रही सरकारी इमारतों के पास जाने में थोड़ा अजीब लगता था. एक दिन इन्ही महिलाओं ने टीवी पर बचत गट के बारे में सुना तो उन्हे लगा फिर कोई 'सरकारी' स्कीम आई है. किसी ने ध्यान ही नहीं दिया. धीरे धीरे बचत गट के इश्तहार बढ़ने लगे और आदिवासी महिलाओं की जिज्ञासा भी. उन्हे लगा कि शायद हम आदिवासी बहनें भी इस गट से जुड़कर कुछ बड़ा कर सकती हैं.  यह ख़याल अभी दिमाग में उपजा ही था कि मन में सवाल आये, ये गट आख़िर है क्या? कैसे बनेगा गट? सरकारी बाबुओं के हाथ पैर तो नहीं जोड़ने पड़ेंगे? इन सब सवालों के बीच कोशिश शुरू हुई, सबने साथ बैंकों के चक्कर लगाए, पोस्ट ऑफिस में पता किया, फिर एक दिन नगरपालिका जाना हुआ, और ऐसे रास्ते खुलते चले गए.

स्वर्ण जयंती शहरी रोजगार योजना के तहत SHG जिसे हम बचत गट कहतीं है, शुरू किये.  एक से दो, दो से चार, और धीरे-धीरे महिलायें खिंची चली आई.  मरीमाता महिला बचत गट, जलगाँव की सदस्यों ने मुद्रा नोटों को बाँधने वाले धागों की कमी पूरी करने का एक अवसर देखा - क्योंकि बैंकों ने अब स्टेपल पिन से धागों पर स्विच किया. फिर क्या था, हम आदिवासी बहनें सरकार को नोट बांधने के धागे बेचने लगीं. 

हम तो ज़मीन से जुड़े लोग हैं. कुछ बहनों ने खेत की मालकिन बनने का सपना देखा. बचत गट में बचत करी, 20 हज़ार रुपयों का बैंक लोन लिया और 4 एकड़ ज़मीन खरीदी. कपास और तुअर की बुवाई की. सुरेखा ने पल्लू से मुंह ढकते हुए कहा, "जब मैं तुअर की फ़सल को खिलता हुआ देखती हूं, तो ऐसा लगता है जैसे हमारे हरे-भरे खेत में तारे उतर आए हों."

अन्ना भाऊ साठे स्वसहायता महिला बचत गट, मलकापुर से मंगल बाई लागे कहती हैं , "हम मतंग (अनुसूचित जाति) की औरतें अक्षर तक नहीं जानती, हमारा जीवन चूल्हे चौके तक ही सीमित था. एक वक्त की रोटी का जुगाड़ बड़ी मुश्किल से हो पाता था. लेकिन हमारे SHG ने हमें उम्मीद दिलाई. अब हमारी दस महिलाओं के समूह का झाडू, टोकरियां और बांस के शोपीस बनाने और बेचने का अच्छा काम है." 

24 महिलाओं के हमारे बचत गट ने हर महीने 50 रुपये की बचत की. एक सदस्य निलोफर शेख ने पेप्सी मशीन के लिए 5 हज़ार रुपये लिए; शांताबाई देओकर ने अपनी सास के ऑपरेशन के लिए 10 हज़ार रुपये लिए; जनाबाई जाधव ने अपने पति के गुज़र जाने के बाद अपनी बेटी की शादी के लिए 5,000 रुपये लिए. आज अपने बचत गट की वजह से ही हम सब साहूकार के क़र्ज़ के जाल से बाहर आ पाए. हमने 10 हज़ार रुपये में एक तैयार अंगूर का बगीचा खरीदा और सीधे बाज़ार में अंगूर बेच 13,300 रुपये कमाए, 3,300 का लाभ हुआ."

शराबी पति से तंग आकर लता कोहले ने तलाक ले लिया और अपने दो बच्चों के साथ मायके आ गईं. वह एक बचत गट में शामिल हुई और बचत करने लगी, लेकिन उनके पति ने परेशान करना नहीं छोड़ा. लता आत्महत्या करने का सोचने लगी. बचत गट की महिलाओं ने लता का साथ दिया. पुलिस के पास गईं और उसके पति को गिरफ़्तार करवाया. स्व सहायता समूहों में महिलाओं के सक्रिय होने और उनके घर से बाहर निकलने के कारण अब उनके समाज में धीरे-धीरे घरेलू हिंसा के मामलों में कमी आई है. 

ये उन आदिवासी महिलाओं की कहानी है जो 'बेचारी' बन कर रहना नहीं चाहतीं.  स्वसहायता समूहों से जुड़कर इन महिलाओं ने उन लोगों को मुंह तोड़ जवाब दिया है जो कहते थे, "अरे, आदिवासी औरत है, ये क्या करेगी?" SHG ने इन महिलाओं को साहूकारों के चंगुल से निकाला, अपनी कमाई शुरू करवाई, फाइनेंशियल लिट्रेसी की समझ बढ़ाई और सपने देखने की हिम्मद दी. आज इन महिलाओं ने शिक्षा की अहमियत को समझा और अपने बच्चों को बेहतर शिक्षा देने का संकल्प लिया.  

अनुसूचित जनजाति (एसटी) देश की आबादी का लगभग 8.6% है. अगर हम आंकड़ों की ओर नज़र दौडाएं तो पायेंगे कि 49.35 % आदिवासी महिलाएं वर्क फाॅर्स का हिस्सा हैं. ये महिलाएं बहुत कम पैसों में खेत मालिकों के यहां मज़दूरी कर रही हैं. बेहतर काम की तलाश उन्हें शहरों में सफाई कर्मचारी बना देती है. सीज़नल फल या सब्ज़ियों को बेचना उन्हें साल में एक-दो बार कमाई दे देता हैं. 

आदिवासी महिलाओं की स्थिति बद्दतर है लेकिन ऐसी निराशाजनक स्थितियों में भी  SHG ने इन्हें यह हौसला दिया कि वो भी मुख्य धारा से जुड़कर भारत में चल रही महिलाओं की आर्थिक क्रांति का हिस्सा बन पाए. किसी की नौकरी करने के बदले खुद बॉस बन जाये. रविवार विचार का मानना है कि हर तबके की महिलाओं की आर्थिक आज़ादी के लिए सरकारी व ग़ैर सरकारी संस्थानों को मिलकर आगे आना होगा.  ये स्वसहायता समूह आदिवासी महिलाओं के सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक और सांस्कृतिक मज़बूती की वजह बन सकेंगे.  

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SHG स्वसहायता समूह आदिवासी सामाजिक आर्थिक राजनीतिक सांस्कृतिक मज़बूती स्वर्ण जयंती शहरी रोजगार योजना