महिलाएं समाज का स्तंभ हैं. हालांकि सामाजिक, राजनीतिक और आर्थिक जगत में कभी भी उनके योगदान का ज़िक्र नहीं हुआ. हमारी सामाजिक संरचना ने उन्हें बस घरेलू गतिविधियों में बांध के रखा. महिलाओं से हमेशा अपेक्षा की जाती है की अपने घरों की चार दीवारों के भीतर रहे. दुनिया, देश और सभी महत्वपूर्ण मुद्दों से उन्हें दूर रखने की कोशिश की गयी. ऐसा ही एक मुद्दा है पर्यावरण. ग्रामीण महिलाएं तो अपने घरेलू कामों के लिए भी पर्यावरण पर निर्भर रहती है. इसलिए पर्यावरण की हानि का महिलाओं के जीवन पर सीधा प्रभाव पड़ता है.
महिलाएं पर्यावरण के संरक्षण और उद्धार में हमेशा से सक्रीय रहीं है. विश्व स्तर पर यह शोध चल रहा है की कैसे हर स्तर पर पर्यावरण संवर्धन में पुरुषों-महिलाओं के बीच के अंतर की भूमिका रहती है. इसका उदहारण है वह देश जहां की संसद में अधिक महिलाएं होती है वहां धरती के संरक्षण और पर्यावरण संधियों पर ज़्यादा काम होता है. संतुलित और सतत पर्यावरण विकास में महिलाएं अधिक जुड़ती है. इसके पीछे मुख्य कारण है, महिलाओं (खासकर ग्रामीण) का अपनी दिनचर्या में पर्यावरण से सीधा जुड़ाव और उनकी मेटरलनल इंस्टिंक्टस.
प्रकृति के साथ महिलाओं का सम्बन्ध इसीलिए होता है क्योंकि उनके पास प्राकृतिक संसाधन प्रबंधन का आधार और कौशल है. साथ ही महिलाएं अपने घर के साथ प्राकृतिक संसाधनों की भी बेहतर प्रबंधक होती है. मूलतः महिलाओं में पर्यावरण के प्रति संवेदनशीलता होती है. इसीलिए महिलाएं पर्यावरण आंदोलनों में बढ़चढ़ कर हिस्सा लेती रही है. अप्पिको आंदोलन, बिश्नोई आंदोलन, साइलेंट वैली मूवमेंट, चिपको आंदोलन, नर्मदा बचाओ आंदोलन, जंगल बचाओ आंदोलन जैसे आंदोलनों में महिलायें आगे रहीं. साथ ही सरकारी और गैर सरकारी कार्यक्रम जैसे एसएचजी संरक्षण कार्यक्रम, सामुदायिक वानिकी कार्यक्रम, सामाजिक वानिकी कार्यक्रम, व्यक्तिगत संरक्षण कार्यक्रम, हरित पट्टी आंदोलन, हरित भारत स्वच्छ भारत कार्यक्रम आदि में भी महिलाओं की अपनी अलग भूमिका रही है.
इन्ही कार्यक्रमों में कुछ प्रयास ऐसे है जो महिलाओं की धरती और पर्यावरण संरक्षण में भूमिका के बारे में बहुत कुछ कहते है. जैसे जनजातीय इलाकों के 12500 गांवों में 25000 SHGs को जंगल संरक्षण में लगाना. स्वयं सहायता समूहों (SHG) के सदस्यों ने भारत भर में अवैध कटाई, चराई और अन्य प्राकृतिक संसाधनों के क्षरण की प्रक्रिया को रोकने में कई कदम उठाये. ओडीएफ या फिर पर्यावरण संरक्षण स्वयं सहायता समूह महिलाओं ने हर मोर्चा संभाला. संरक्षित वन्य सम्पदा हो या फिर वन विहार हर तरफ SHG महिलाओं को लगाया जा सकता है और इससे उनकी आजीविका के साथ पर्यावरण को बढ़ावा मिलेगा. ग्रामीण क्षेत्रों में स्वयं सहायता समूहों की एक बड़ी भूमिका है. यह गांवो में लोगों को स्वरोजगार के साथ आत्मनिर्भर बनाने के साथ-साथ सामाजिक कार्यों में भी आगे बढ़ाने के लिए प्रेरणास्रोत बनते हैं. अब स्वयं सहायता समूह पर्यावरण संरक्षण व जल संरक्षण की जिम्मेदारी भी संभाल रहे है. पौधों की नर्सरी से लेकर मिट्टी कटाव रोकने में भी समूहों की महती भूमिका है. साथ ही पर्यावरण संरक्षण के महत्त्व को देश के कोने कोने तक पहुंचा रही है. पराली जलने से रोकना हो या कारखानों से हो रहा वायु प्रदूषण हर जगह खड़ी दिखती है स्वयं सहायता समूह की दीदियां.
धरती मां को संभालती धरती दीदियां
स्वयं सहायता समूह गांवो में लोगों को आत्मनिर्भर बनाने के साथ-साथ सामाजिक कार्यों में भी आगे हैं. अब स्वयं सहायता समूह पर्यावरण संरक्षण व जल संरक्षण की जिम्मेदारी भी संभाल रहे है. पौधों की नर्सरी से लेकर मिट्टी कटाव रोकने में भी समूहों की महती भूमिका है.
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