लिंग आधारित हिंसा किस आधार पर

आसान शब्दों में समझें तो किसीको शारीरिक या मानसिक चोट पहुंचाने को हिंसा कहते हैं. ये हिंसा यदि लिंग के आधार पर हो तो उसे लिंग आधारित हिंसा कहते है. लिंग आधारित हिंसा में शारीरिक, यौन, मनोवैज्ञानिक, आर्थिक और भावनात्मक शोषण शामिल हो सकते हैं.

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मिस्बाह
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gender based violence

हिंसा शब्द सुनते ही मन डर जाता है.  मूवी हो या अखबार, सड़क हो या सोशल मीडिया, हर जगह हिंसा के बारे में सुनने या देखने को मिल जायेगा. आसान शब्दों में समझें तो किसीको शारीरिक या मानसिक चोट पहुंचाने को हिंसा कहते हैं. ये हिंसा यदि लिंग के आधार पर हो तो उसे लिंग आधारित हिंसा कहते है. लिंग आधारित हिंसा में शारीरिक, यौन, मनोवैज्ञानिक, आर्थिक और भावनात्मक शोषण शामिल हो सकते हैं. दहेज़-हत्या, यौन उत्पीड़न, महिलाओं से लूटपाट, लड़कियों या महिलाओं से छेड़-छाड़, ज़बरदस्ती विवाह, अपहरण या बहला फुसला के भगा ले जाना, शारीरिक या मानसिक शोषण, पत्नी से मारपीट, इत्यादि लिंग के आधार पर हिंसा के कुछ उदाहरण हैं.  इन्हें भारतीय दंड संहिता ने गंभीर अपराध की श्रेणी में रखा. इसके बावजूद महिला हिंसा से जुड़े केसों में लगातर बढ़ोतरी हो रही है. 

NCRB (नेशनल क्राइम रिकॉर्ड ब्यूरो) के हिसाब से महिलाओं के खिलाफ होने वाले 4,28,278 मामले दर्ज हुए.  29. 3 % भारतीय विवाहित महिलाओं ने और 3.1 % गर्भवती महिलाओं ने घरेलु हिंसा का सामना किया है. यूएन वुमेन की रिपोर्ट ने बताया साल 2021 में हर घंटे पांच लड़कियों की हत्‍या हुई. और हर केस में हत्‍या करने वाला कोई और नहीं, बल्कि उनका कोई अपना करीबी और परिवार का व्‍यक्ति था. इस रिपोर्ट के मुताबिक पूरी दुनिया में 81,100 महिलाओं की हत्‍या हुई, जिसमें से 56 % यानी 45,000 महिलाओं की हत्‍या करने वाले उनके परिवार के लोग और उनके पति, प्रेमी आदि करीबी लोग थे.

कई महिलाएं डर की वजह से शिकायत दर्ज ही नहीं करतीं, अगर उनकी संख्या मिलाये जाये तो ये आंकड़े दोगुने हो जायेंगे.अपने अधिकारों के प्रति जागरूक न होना और मदद मांगने में झिझक की वजह से ये महिलाएं शिकायत नहीं करतीं. ये आंकड़े समाज की आधी आबादी की सुरक्षा पर सवाल उठाते हैं. न्याय मिलने में देरी, पुरुषवादी मानसिकता, जागरूकता की कमी जैसी कई वजहों से इन आंकड़ों पर लगाम नहीं लग पा रही. महिलाएं तय किये गए जेंडर रोल्स और सामाजिक ढर्रे में इस क़दर धस जाती हैं कि कई बार ग़लत को ग़लत समझने से इंकार कर देती  हैं. पति की मार, सड़क पर छेड़छाड़, या दहेज़ की फरमाइश होने पर कहती हैं, "ऐसा ही तो होता हैं, समाज को कौन बदल सकता है."  

महिलाओं के साथ हो रही हिंसा से निपटना समाज सेवकों की ज़िम्मेदारी ही नहीं एक चुनौती भी है. महिलाओं को जरुरत है कि जागरूक बने की वे खुद दूसरों पर निर्भर न रह कर अपनी जिम्मेदारी खुद ले तथा अपने अधिकारों, सुविधाओं के प्रति जागरूक हो. लड़के और लड़कियों को लैंगिक बराबरी, कंसेंट, और सेक्स एजुकेशन की क्लासेस इन केसेस को रोकने में मदद कर सकती हैं. इसकी शुरुआत स्कूलों से होनी चाहिए. लड़कियां यदि सामाजिक और आर्थिक रूप से सशक्त होंगी तो अपने लिए आवाज़ उठा सकेंगी. सरकार, प्रशासन, न्यायालय, समाज और सामाजिक संस्थाओं को ज़रुरत है कि वो ज़मीने स्तर पर ऐसी हिंसा की वजहों पर काम करें.   

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