लड़कियों को पढ़ाओ उनको बढ़ाओ, उनकी इज़्ज़त करो, वो किसी से कम नहीं है, लड़कियां जो चाहे वो कर सकती हैं, उन्हें हर तरह की आज़ादी है, .ऐसी कितनी बातें हम सब हर दिन सुनते होंगे. कितने ही लोग अपने आप को सबसे बड़ा 'फेमिनिस्ट' बताते हैं. लेकिन आज भी जब एक लड़की स्कर्ट या शॉर्ट्स पहन कर बाहर निकलती है, तो ज़्यादातर निगाहें उसका पीछा करने लगती हैं, मन ही मन सवाल उठाये जाते हैं और कहीं न कहीं चरित्र परिभाषित कर दिया जाता है. यह तो तथाकथित शहरी हालात है गावों की बात तो छोड़ ही दें.
किसी भी लोकतांत्रिक आज़ाद देश में सोचने, बोलने, खाने पीने, पहनावे की आज़ादी होनी चाहिए. जब आज़ादी हमारे देश के हर इंसान को बराबर मिली है तो लड़कियों को अपने पसंद के कपड़े पहनने से पहले क्यों सोचना पड़ता है ? घर से शॉर्ट ड्रेसेस पहन के निकलने से पहले ही घर वाले बोल देते हैं, 'ये पहन कर मत जाओ '. बंदिश घर से ही शुरू होती है और बाहर उस बंदिश पर मुहर लग जाती है.
अनचाहे ही लड़की खुद से ये सावल पूछने पर मजबूर हो जाती है - ' कही गलती मेरी ही तो नहीं ? ' लेकिन हर वो नज़र जो उसे मुड़ के देख रही है वो खुद से ये सवाल क्यों नहीं कर रही? समाज के ठेकेदारों ने तय कर लिया कि लड़कियां क्या पहनेंगी. अगर आज एक लड़का शॉर्ट्स पहन कर बाहर निकले तो कहा जाएगा कि, ' यार शॉर्ट्स कम्फर्टेबल होते हैं, और गर्मी भी तो कितनी है. 'और वही शॉर्ट्स अगर एक लड़की पहन के निकले तो ?
लडकियां जब सिर्फ शॉर्ट्स या क्रॉप टॉप पहन रही है तब ये हाल है, बिकिनी पहन ले तो हंगामा ही हो जाए. सी बीच हो या स्विमिंग पूल, फिल्म की शूट हो या कोई ऐड की, लड़की बिकिनी पहन तो ले. उसका कैरक्टर असैसिनेशन करने के लिए देश की आधी जनता तैयार हो जाएगी. लोग लड़कियों के मामले में हमेशा ये भूल जाते हैं कि उन्हें भी उतनी ही आज़ादी और हक़ मिला है जितना एक लड़के को. वो जब चाहे, जहां चाहे, जो चाहे वो पहन सकती है.
सिर्फ आज की पीढ़ी नहीं बल्कि 1966 की फिल्म "एन इवनिंग इन पेरिस" में ऑन-स्क्रीन बिकनी पहनने वाली पहली भारतीय अभिनेत्री शर्मिला टैगोर थीं. उन्होंने भारत में सबसे पहले बिना किसी डर के कैमरा के सामने बिकिनी पहनी जो कि उस वक़्त के हिसाब से एक बहुत ही 'बोल्ड' मूव था. बिकनी में शर्मिला टैगोर जैसी कलाकार को देखकर भारत में उस समय बहुत हलचल मच गयी थी. तब से, भारतीय सिनेमा में कई दूसरी अभिनेत्रियों ने ऑन-स्क्रीन बिकनी पहनी है, जिनमें "कुर्बानी" (1980) में ज़ीनत अमान और "बॉबी" (1973) में डिंपल कपाड़िया शामिल है.
फैशन डिज़ाइनर लुइस रेकर्ड सबसे पहले बिकनी क्लोथिंग स्टाइल को लाये थे. इन्होंने बिकिनी का नाम 'बिकिनी एटोल' के नाम पर रखा , जहां 4 दिन पहले ही 'नुक्लिअर बम' का परिक्षण किया गया था. भारत में पहनावा पहले से ही मौसम और हालात पर निर्भर रहा. हमारे जनजातीय और सदियों पहले के समाज में पहनावे की आज़ादी ज़्यादा थी. विदेशों में बिकिनी पहनावा नया है और इसको फेमिनिस्ट मूवमेंट से जुड़ा हुआ माना गया. हॉलीवुड की अभिनेत्रियों को भी बिकिनी पहनने पर कई ताने नहीं मारे गए है. मैरीलीन मोनरो और मेगन फॉक्स जैसे नाम बिकिनी पहन के ही दुनिया पर छाए लेकिन वो भी लोगो कि सोच से बच नहीं पाई. और ये ही हाल है हमारे देश में जहां आए दिन कोई ना कोई अपने पहनावे को लेकर बेशरम रंग से पुता नज़र आता है.
तापसी पन्नू , दीपिका पादुकोण, अनुष्का शर्मा, आलिया भट्, प्रियंका चोपड़ा जैसे कई नाम है जिन्हें आज पूरा देश जानता है. ये सब अपनी प्रतिभा देश दुनिया को कई बार साबित कर चुकी है लेकिन फिर भी बात उनके कपड़ों की होती है. विवाद सेलिब्रिटी कल्चर का हिस्सा है, लेकिन महिला सेलिब्रिटी ज़्यादातर अपने कपड़ों को लेकर ही विवादों में घिरती है. इन सेलिब्रिटी महिलाओं को आम लड़कियां अपनी प्रेरणा मानती है, और जब उनकी आइडल ऐसे विवादों में फंसती है तब आम लड़कियों की आज़ादी भी विवाद का उदाहरण देकर दबा दी जाती है.
आज के समय में तो भारतीय फिल्मो में ज़्यादातर एक्ट्रेस बिकिनी पहन के शूट करती है और सोशल मीडिया पर पोस्ट्स भी आते रहते है. समय तो बदल गया है और लड़कियों का आत्मविश्वास भी. नहीं बदली है तो सोच, नज़र और मानसिकता जो लड़की के छोटे कपड़ो को देखकर ज़्यादा छोटी हो जाती है. भले ही बदलाव हुए है, आज से 50 साल पहले हम जो सोच भी नहीं सकते थे, वो आज कर रहे है. लेकिन छोटी सोच छोटे कपड़ों पर अभी भी भारी है.