देश के कुछ इलाकों में खासकर बंगाल की कुछ माइक्रोफाइनेंस कंपनियां आज पुराने ज़माने के साहूकारों जैसा काम कर रही हैं. यह कंपनियां अपने तथाकथित अधिकारियों का इस्तेमाल करके निम्न-आय वाले परिवारों से ज़ोर-ज़बरदस्ती और लगातार धमकियों के साथ पैसा इकट्ठा करने में लगे हुए है. हालात इतने खराब हो चुके हैं कि इस तरह की वसूली अब फिल्मों का विषय भी बनती जा रही है, जैसे 2017 की बांग्ला फिल्म 'कड़वी हवा'. इस फिल्म में कर्ज़ वसूलने वाले को 'जमदूत' (मौत का देवता) कहा गया. लेकिन बंगाल के गांवों में इन्हें अधिकारी समझ कर 'सर' कहा जाता है.
बंगाल में बेरोज़गारी और गरीबी का जाल गहरा है इसके चलते परिवारों को घर चलाने के लिए, शादी, अंतिम संस्कार, बीमारी, त्योहारों टूटे हुए घरों की मरम्मत जैसे पारिवारिकऔर सामाजिक कामों में रुपये की ज़रुरत पड़ती रहती है. अब इन सब के लिए अनसेक्यूर्ड लोन गरीब महिलाएं इन कंपनियों से लेती है. बस बन जाता है कर्ज़ का एक घेरा जिसका पूरा फायदा यह कंपनियां उठाती है. इनका घिनौना खेल ऐसा है कि बंगाल में यह क़र्ज़ मुख्य रूप से महिलाओं को ही दिया जाता है. बंगाल के पिछड़े बांकुड़ा, पुरुलिया जैसे जिलों का तो यह ऐसा सच है जिसे मान्यता मिल चुकी है. जनप्रतिनिधि से लेकर अधिकारियों, सबको पता है कि कैसे इन सूदखोर कंपनियों ने अपनी जड़ें इन जिलों में फैला ली है लेकिन इसे रोकने के लिए कुछ नहीं किया जा रहा.
हालात यह हैं कि बंगाल के ग़रीब लोगों के पास कोई विकल्प नहीं बचा. क़र्ज़ लेने के बाद भी पूरी राशि नहीं मिलती; प्रोसेसिंग, बीमा के नाम पर रुपये काट लिए जाते हैं. ब्याज दर ऊंची होती है और कर्ज़ वसूलने वालों की धमकियों के कारण कितनों को अपना घर छोड़ भागना पड़ा. इस सबका इलाज स्वयं सहायता समूह हो सकते हैं, वैसे भी बंगाल देश के सबसे ज़्यादा SHG वाले प्रदेशों में शामिल है. लेकिन लगातार सरकारों ने जो रवैया अपनाया उनसे इनका सही उपयोग नहीं हो पाया. जैसे समूह तो बन गए लेकिन उन्हें कर्ज़ पर सब्सिडी नहीं मिली. समूह अक्सर स्कूलों में मिड-डे मील बनाते हैं और राजनीतिक रैलियों के लिए भोजन पकाते हैं. साथ ही उन्हें अक्सर इन रैलियों की भीड़ की तरह काम में लिया जाता है और भुगतान के समय भ्रष्टाचार होता है. मनरेगा (महात्मा गांधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोज़गार गारंटी अधिनियम) की ख़राब स्थिति ने बंगाल के जिलों में बेरोज़गारी को और भी बदतर बना दिया. इन्ही हालातों का फायदा कंपनियों ने उठाया. आर्थिक रूप से ग़रीब महिलाओं की मदद करने की आड़ में इन कंपनियों ने साहूकारी की पुरानी व्यवस्था को फिर से शुरू कर दिया.
इसका तरीका भी इन कंपनियों ने SHG जैसा ही बनाया. यह कंपनियां अपने दलालों के माध्यम से ग़रीब इलाकों में पहुंचते है, सबसे पहले कम से कम 10 विवाहित महिलाओं का समूह बनाते हैं. इसके बाद कुछ दिनों के अंदर, समूह के प्रत्येक सदस्य को तक़रीबन 20,000 रुपये का लोन मिल जाता है. और ऐसे शुरू होता है कुचक्र. जैसे एक महिला ने इन कंपनी से लोन लिया 70,000 रुपये का. अब ऐसे कागज़ पर दस्तखत करवा लिए, जिसमें 104 हफ़्ते के लिए 1,300 रुपये की साप्ताहिक किश्त का भुगतान करना था. इस तरह 70,000 रुपये की मूल राशि के लिए उसने दो सालों में लगभग 1,35,200 रुपये भरे जो की 50% से अधिक की ब्याज़ दर के बराबर है. इस तरह शोषण और धमकियों का चक्र शुरू होता है. जो की सीधे तौर पर धोखाधड़ी का मामला बनता है.
समूह के सदस्यों को धमकी दी जाती है कि यदि एक सदस्य किश्तों का भुगतान करने में विफल रहता है, तो बाक़ी सभी के लोन समाप्त कर दिए जाएंगे. इसके परिणामस्वरूप, जब समूह का कोई सदस्य किश्त चुकाने के लिए संघर्ष करती है, तो अन्य सदस्य अक्सर उस पर दबाव डालते हैं. इससे उनके आपसी संबंधों में खटास आ रही है. इसके अलावा, कर्ज़ लेने वालों के साथ अमानवीय व्यवहार के कारण विनाशकारी स्थिति पैदा होती है. कुछ महिलाओं ने कथित तौर पर आत्महत्या करने की भी कोशिश की है.
महिलाओं को कर्ज़ के चंगुल में फंसाए रखने के लिए इन कंपनियों ने एक और तरीका अपनाया है. पांच से सात किश्तों का भुगतान करने के बाद, महिलाओं को बताया जाता है कि वे फिर से लोन लेने के लिए पात्र हैं. पुराने कर्ज़ का पैसा काटकर नए का दोबारा बीमा कराने के बाद इन महिलाओं को नए कर्ज़ के तहत काफ़ी कम पैसा दिया जाता है. इसके बाद महिलाओं को ऊंची ब्याज़ दर के साथ ज़्यादा पैसा देने को मजबूर होना पड़ता है.
बंगाल की इन महिलाओं को कंपनियों के चंगुल से छुटकारा दिलाने के लिए राज्य सरकार को इस पर ध्यान देना होगा और एक ऐसी स्वयं सहायता प्रणाली बनानी होगी जिसकी निगरानी और नियमन राज्य सरकार का वित्त मंत्रालय करे या फिर रिज़र्व बैंक को यह काम दिया जाए. SHG महिलाओं को इस चंगुल से बचाना उनके भविष्य और आर्थिक आज़ादी दोनों के लिए महत्वपूर्ण है.