इंडियन सिनेमा (Indian cinema) को नई सोच और रंग-बिरंगे किरदारों से रंगने वाले डायरेक्टर (director) मणिरत्नम (Mani Ratnam) ने अपनी कॉर्पोरेट जॉब से परेशान होकर फ़िल्मी दुनिया को चुना. अपनी भावनाओं, कहानियों, और ज़मीनी स्तर की समस्याओं को फिल्मों का रूप दिया. उनकी फिल्मों में महिला किरदार (female characters) थोड़ी जटिल, काफी बेबाक, और ज़रा हटके होती. मणिरत्नम की फ़िल्में महिलाओं के दिलों की गहराई और भावों की जटिलता को दर्शातीं. हवा, बारिश, पानी जैसे प्राकृतिक दृश्यों के ज़रिये - उदासी, खुशी, भय, हताशा, रोष, प्रेम, शून्यता, हर भावना को दिखाया.
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1987 की नायकन में नीला ने पितृसत्ता की गहराईयों को दिखाया और बताया पुरुष प्रधान समाज की भ्रांतियां किस तरह एक लड़की के सपनों को रोंदती हैं. 1995 की फिल्म बॉम्बे की किरदार बानो, शादी के बाद धर्म, परिवार और प्यार को एक धागे में बांधती दिखी. शादी के बाद अपने नए घर में अंजान तौर-तरीकों को अपनाने की जद्दो जहद को दिखाया. 2002 में आई कन्नाथील मुथामित्तल की इंदिरा ने समाज की बंदिशों को तोड़ते हुए गोद ली हुई बेटी को मां का प्यार दिया. इस फिल्म ने मातृत्व के अलग-अलग पहलुओं की परते खोलीं. समय के साथ मणिरत्न की महिला किरदारों को बदलते देखा, पर उनकी आज़ाद ख़याली कभी न बदली.
मणिरत्नम डायरेक्टर होने के नाते अपने किरदारों को ऐसे गढ़ते कि बड़ी सहजता से पितृसत्ता की असलियत धीरे-धीरे सामने आती. मां, बहन और पत्नी के रूप की गहराई को दिखाया. आमतौर पर इनकी सभी नायिकाओं में स्वतंत्र स्वभाव देखा जाता है. उनकी हर पहलु की पड़ताल करने वाली फिल्म मेकिंग स्टाइल महिला किरदारों को बेचारी या पुरुष की पीछे चलने वाली नहीं दिखाती. 'नायकन', 'रोजा', 'बॉम्बे', 'दिल से' और 'कन्नाथिल मुथमित्तल' जैसी फिल्मों में, महिला पात्र कहानी का अभिन्न अंग हैं और उन्हें पुरुष प्रधानों के समान महत्व दिया गया. उनकी आकांक्षाओं, इच्छाओं और संघर्षों को चित्रित किया गया.
परंपरागत फिल्म मेकिंग स्टाइल से हटके, अपने समय से आगे की फ़िल्में बनाने वाले मणिरत्नम आज भी इंडियन सिनेमा को अपनी क्रिएटीविटी से प्रभावित कर रहे हैं.