सुबह उठकर पंछियों की मीठी आवाज़, ठंडी और साफ़ हवा, बड़े और घने पेड़, और साफ पर्यावरण- ऐसी ही थी हमारी धरती, आज से कुछ दशक पहले. विकास बढ़ता गया, लोगों के लिए सुविधाएं होती गयी, लेकिन यह सब किस कीमत पर? कीमत बना हमारा पर्यावरण! सुविधाएं और विकास गलत नहीं है, लेकिन जब यह धरती के गले को रोंध कर किया जाए तो जवाबदेह कौन होगा? हर व्यक्ति अपनी रहने की ज़मीन को बढ़ाने के लिए पेड़ काट रहा है. अगर उस व्यक्ति से कहा जाएगा तो उसका जवाब होगा, "मेरे अकेले के पेड़ बचाने से क्या होगा, पूरी दुनिया में यह हो रहा है, मैं पेड़ ना भी काटूं, तब भी फर्क तो नहीं पड़ जाएगा." यही सोच है दुनिया में रहने वाले ज़्यादातर लोगों की, और इसीलिए बदलाव और भी मुश्किल हो रहा है.
हम भले ऐसा सोचते हो, लेकिन इस धरती की सुरक्षा के लिए कुछ फाइटर्स हमेशा तैयार है. वे भी अकेले है, और अकेले ही अपने मिशंस पर निकले है, क्यूंकि वे अच्छे से जानते है, "बूँद बूँद से ही सागर बनता है." यह है भारत की कुछ महिलाएं, जिन्होंने ठान रखा है- 'जिसनें हमें इतने वक़्त से संभाल रखा है, जो हमें रहने के लिए, खाने के लिए, खुश रहने के लिए, हर चीज़ दे रही है, आज जब उसे ज़रूरत है, तो हमें ही आगे आना है!'
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सबसे पहला नाम है, वंदना शिवा. यह ‘रिसर्च फाउंडेशन फ़ॉर साइंस, टेक्नोलॉजी, ऐंड नैचुरल रिसोर्स पॉलिसी’ की निदेशक हैं. देहरादून में स्थित यह संस्था जंगलों की रक्षा, जैव विविधता संरक्षण और पर्यावरण संबंधित मामलों में महिलाओं की भागीदारी बढ़ाने के लिए काम करता है. वंदना ‘ईको-फ़ेमिनिस्ट’ हैं. उनका मानना है, पर्यावरण की सुरक्षा कृषि व्यवस्थाओं में महिलाओं को आगे लाकर की जा सकती है. साल 1987 में वंदना ने अपने NGO ‘नवदान्य’ की स्थापना की, जो जैविक खेती, जैविक विविधता संरक्षण, और किसानों के अधिकारों पर काम करता है. नवदान्य अब तक चावल के लगभग 2000 प्रकारों के संरक्षण में कामयाब हुआ है और भारत के 22 राज्यों में 122 ‘बीज बैंक’ स्थापित कर चुका है. अपने योगदान के लिए वंदना शिवा को 1993 में ‘राइट लाइवलीहुड’ पुरस्कार से नवाज़ा जा चुका है.
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अगला नाम है, सुनीता नारायण. यह ‘सेंटर फॉर साइंस एंड एनवायरनमेंट’ (CSE) की निदेशक होने के साथ ‘डाउन टू अर्थ’ मासिक पत्रिका की संपादक भी हैं. उनका काम ख़ासतौर पर पर्यावरण और मानव विकास के पर केंद्रित है. 1989 में CSE संस्थापक अनिल अग्रवाल के साथ उन्होंने ‘टुवर्ड्स ग्रीन विलेजेस’ नाम का शोधपत्र लिखा, जो ग्रामीण विकास और पर्यावरण संरक्षण पर प्रकाश डालता है. 2012 में उन्होंने भारत की सातवीं पर्यावरण रिपोर्ट ‘एक्सक्रीटा मैटर्स’ लिखी, जो हमारे शहरों में पानी की कमी और प्रदूषण को समझाती है. सुनीता के हिसाब से शहरीकरण का मतलब सिर्फ़ बड़ी बड़ी इमारतें खड़ी करना नहीं बल्कि पर्यावरण के बारे में जागरूकता फैलाना भी है. साल 2005 में सुनीता नारायण को 'पद्मश्री' से सम्मानित किया गया था और 2016 में टाइम पत्रिका ने उन्हें साल के 100 सबसे इन्फ्लुएंशियल व्यक्तियों की लिस्ट में भी शामिल किया.
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तीसरा नाम है, अनुमिता रॉय चौधरी. CSE के Research and Advocacy Department की निदेशक अनुमिता का कार्य मैंतनबल विकास और शहरीकरण पर केंद्रित है. साल 1996 में ‘राइट टू क्लीन एयर’ अभियान के नेतृत्व में उनकी अहम भूमिका रही है, जिसका लक्ष्य दिल्ली की हवा को स्वच्छ बनाने की ओर है. इसी अभियान के चलते आज दिल्ली के सभी सार्वजनिक वाहन डीज़ल की जगह कंप्रेस्ड नेचुरल गैस (CNG) पर चलते हैं. अनुमिता हवा को प्रदूषण-मुक्त करने की कई सरकारी योजनाओं में शामिल रहीं हैं. वायुमंडल सुरक्षा पर राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय सभाओं में एक सदस्य और सलाहकार के रूप में उनका योगदान मूल्यवान रहा. साल 2017 में अमेरिका के कैलिफोर्निया की सरकार की तरफ़ से उन्हें ‘हेगेन स्मिट क्लीन एयर अवॉर्ड’ से नवाज़ा गया.
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चौथा नाम है, सुमायरा अब्दुल अली. वे ‘आवाज़ फाउंडेशन’ की संस्थापक है, जो ध्वनि प्रदूषण के मुद्दे पर काम करता है. इस क्षेत्र में उनके कोशिशों और सफलताओं की वजह से उनका नाम ‘भारत की ध्वनि मंत्री’ पड़ गया है. साल 2003 में उन्होंने मुंबई में साइलेंस ज़ोन के निर्माण के लिए मुंबई उच्च न्यायालय में जनहित याचिका दर्ज की थी. साल 2009 में ही न्यायालय ने बृहनमुंबई महानगरपालिका (BMC) को अस्पतालों, धार्मिक स्थलों, और शैक्षणिक संस्थाओं से सौ मीटर की दूरी पर 2237 इलाकों को ‘साइलेंस ज़ोन’ घोषित करने का आदेश दिया. साल 2007 में अपनी संस्था के साथ उन्होंने एक और याचिका पेश की जिसमें उन्होंने ध्वनि प्रदूषण के नियम लागू करने और मुंबई शहर का ध्वनि नक्शा बनवाने की भी मांग की. साल 2016 में न्यायालय ने इन सभी मांगों की पूर्ति का आदेश दिया. साथ ही मुंबई के अलावा महाराष्ट्र के सभी शहरों में साउंड स्टडीज़ और मैपिंग को अगले 25 वर्षों तक सरकारी विकास योजना में शामिल करने का भी आदेश दिया. सुमायरा को अपने काम के लिए 'मदर टेरेसा पुरस्कार' मिला है.
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लास्ट बट नॉट लीस्ट,अगला नाम है, डॉ. कृति करंथ. कृति अमेरिका के ड्यूक यूनिवर्सिटी से एनवायर्नमेंटल साइंस एंड पॉलिसी में PhD हैं. वे 20 साल से भारत में वन्य जीवन संरक्षण पर शोध कर रहीं हैं, और बेंगलुरु में स्थित ‘सेंटर फॉर वाइल्डलाइफ स्टडीज़’ की निदेशक हैं. डॉ. कृति ने एक्सटिंक्शन, मैन-फारेस्ट रिलेशनशिप, और इफेक्ट्स ऑफ़ फारेस्ट टूरिज्म पर बहुत सी रिसर्च की है. वे वन्य जीवन पर 90 निबंध और एक बाल पुस्तक लिख चुकीं हैं. वे लगभग 120 वैज्ञानिकों को वाइल्डलाइफ स्टडीज़ पर प्रशिक्षित कर रही हैं. साल 2019 में उन्हें अपने कार्य के लिए ‘विमेन इन डिस्कवरी’ पुरस्कार से सम्मानित किया गया है.
यह सारी महिलाएं पर्यावरण और आम जीवन को जोड़कर जो कार्य कर रहीं है, वह सराहनीय है. यह महिलाएं साबित कर रहीं है कि व्यक्ति काम अकेला ही शुरू करता है, उसके साथ पूरा समाज अपने आप जुड़ता जाता है. अगर बात करें स्वयं सहायता समूह (SHG) महिलाओं की, वे भी बहुत समय से ऐसे उत्पाद, और प्रक्रियाएं तैयार कर रहीं है, जो पर्यावरण के लिए बिल्कुल नुक्सान दायक नहीं है. चाहे self help group की महिलाएं हो, या इन मुकामों पर पहुंची महिलाएं, वे जानती है अगर पर्यावरण सुरक्षित है तो हम भी खुशहाल है, और अगर पर्यावरण प्रदूषित है तो हमारा कोई अस्तित्व ही नहीं रहेगा. आज 'वर्ल्ड एनवायरनमेंट डे' पर हर व्यक्ति को यह प्रण लेना चाहिए कि अपनी धरती को हर तरह से बचाएंगे, और अपनी आने वाली पीढ़ी को सुरक्षित रखेंगे.