मासिक चक्र क्यों लुकाछिपी

यूं पीरियड लीव की पंरपरा नई नहीं है, पुरानी है, सदियों पुरानी. अछूत बन जाती हैं आज भी अधिकतर स्त्रियां अपने ही घरों में, जबकि इस परंपरा की शुरुआत निश्चित रूप से उन चार दिनों में स्त्रियों को आराम देने के लिए ही हुई होगी.

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निष्ठा गर्ग
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Image Credits: Ravivar vichar

पीरियड्स लीव को लेकर इन दिनों खूब बहस चल रही है, पर घरों में नहीं. आज भी आम भारतीय घरों में मासिक धर्म को लेकर चुप्पी साधे रखने की परंपरा चल रही है, लेकिन कायदे ऐसे हैं कि पता चल ही जाता है. ऐसे में मासिक चक्र एक प्रक्रिया न होकर लुकाछिपी का खेल ज्यादा लगने लगता है. पाठ-पूजा के दौरान कुछ दूर खड़ी स्त्री इस बात का इश्तिहार करती हुई नजर आती है कि वो अभी रजस्वला है. सबको पता है, लेकिन कोई खुलकर बात नहीं करता, जब घर-परिवार और रिश्तेदारों के बीच ही इस मसले पर बात नहीं हो रही तो पीरियड्स लीव को लेकर जरूरी संवेदनशीलता कहां से आएगी! आखिर संवेदनशीलता का पहला पाठ तो हम परिवार में ही सीखते हैं.

जेंडर इश्यू पर काम करने वाले महेश कुमार कहते हैं कि हर महीने घर के राशन और अन्य जरूरी सामानों की सूची बनती है, लेकिन उसमें सैनटरी पैड का जिक्र तक नहीं होता. पैड अलग से मंगवाए जाते हैं, आखिर क्यों! हम ट्रेनिंग में लोगों को जागरूक करते हैं कि मासिक धर्म एक सामान्य प्रक्रिया है, सैनेटरी पैड जैसी जरूरी चीजों को लेकर असहज होने की जरूरत नहीं. ये अब सूची में दर्ज होने चाहिए, अन्य सामानों के साथ आने चाहिए.

महेश की तरह ही बहुत सारे लोग जो अरसे से जेंडर इश्यू पर काम कर रहे हैं, इन मसलों को उठाते रहे हैं, लेकिन बात है कि बन ही नहीं रही. सैनेटरी पैड के विज्ञापन धड़ल्ले से टीवी पर आते हैं, लेकिन मेडिकल स्टोर या ग्रोसरी स्टोर पर जब सैनेटरी पैड लेने जाते हैं, तो उसे काले पॉली बैग में या फिर पुराने अखबार में अच्छे से लपेटकर दिया जाता है, ताकि किसी को नजर न आए. आखिरकार तो वो हमारे आस-पास के समाज का ही हिस्सा है. कागज में छिपे सैनेटरी पैड... शर्म या शर्मिंदगी... दोनों यहां आकर एक अर्थ देते हैं. ऐसा लगता है कि यह दुनिया की एकमात्र ऐसी चीज है, जो किसी और को दिखना ही नहीं चाहिए.

परिवार में स्त्रियों के बीच रहते हुए भी पुरुष कभी समझ ही नहीं पाए कि उन चार दिनों में स्त्री अछूत नहीं होती, बल्कि बेहद दर्द से गुजरती है. कुछ स्त्रियों को ज्यादा दर्द नहीं होता, लेकिन समस्या तो तब भी है, साफ-सफाई पर विशेष ध्यान देना होता है. सभी दफ्तरों में पर्याप्त सुविधाएं नहीं होतीं, ऐसे में स्त्रियां आहिस्ता से कहती हैं, आज बुखार है, चक्कर आ रहे हैं... और अपना आकस्मिक अवकाश ले लेती हैं. जरूरत है कि अब वे कहना शुरू करें, पीरियड्स चल रहे हैं, दर्द है... नहीं आ सकती. पीरियड्स लीव जब मिलेगी, तब मिलेगी, पर अपने हक की लड़ाई में आप अपने दर्द पर खुलकर बात तो कीजिए.

यूं पीरियड लीव की पंरपरा नई नहीं है, पुरानी है, सदियों पुरानी, लेकिन परंपराएं तो तीन पीढिय़ों के अपनाने से ही रूढ़ी बन जाती है. इसी रूढ़ीवादिता का खेल तो हम घरों में खेलते हैं. चूल्हे के पास नहीं जाना, पूजा नहीं करना.... और तो और अचार या पापड़ पर तो छाया भी नहीं पड़नी चाहिए. अछूत बन जाती हैं आज भी अधिकतर स्त्रियां अपने ही घरों में, जबकि इस परंपरा की शुरुआत निश्चित रूप से उन चार दिनों में स्त्रियों को आराम देने के लिए ही हुई होगी.

आज हम इसी परंपरा को तो कार्यस्थल पर दोहराना चाहते हैं लेकिन सुप्रीम कोर्ट चेता रहा है कि इससे स्त्रियों के लिए कार्यस्थल पर अवसर कम हो जाएंगे, एक तर्क यह भी दिया जा रहा है कि इन छुट्टियों का स्त्रियां दुरुपयोग कर सकती हैं. यह कितना अजीब है कि तीन दिन की रसोई से छुट्टी के बावजूद रसोई में काम करने के स्त्रियों के अवसर खत्म होने का नाम ही नहीं ले रहे हैं! दुरुपयोग तो कुछ स्त्रियों ने घर में भी किए होंगे, ससुराल पक्ष के अनचाहे मेहमानों को देखकर रजस्वला होने का नाटक रचा होगा और किशोरियों ने तो कई बार छिपाई होगी अपनी मां से अपने रजस्वला होने की बात... टोका-टोकी जो रास नहीं आती होगी उन्हें. इन तमाम दुरुपयोगों के बावजूद समाज का ढर्रा अपनी गति से ही बदला है, बदल रहा है. ऑफिस जाने वाली महिलाओं ने घर में चल रही रूढिय़ों से कुछ हद तक पार पाई भी है, अब वक्त है कि कार्यस्थल पर अपने हक में माहौल बनाएं, शर्म और शर्मिंदगी को पीछे छोड़ें, ताकि पीरियड लीव पर जब बहस चले तो समाज कम से कम संवेदनशील तो नजर आए.

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