सेफ मदरहुड को बढ़ावा दे रहे SHG

बिहार के 8 जिलों के 64 ब्लॉकों में 26,514 समूहों के माध्यम से लगभग 400,000 महिलाओं तक पहुंचा गया. हेल्थ ट्रेनर्स इन स्वयं सहायता समूहों का नेतृत्व करते हैं जिन्हें 'सहेली' कहा जाता है. ये सहेलियां बिहार सरकार (जीविका) की निगरानी में काम करती हैं.

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मिस्बाह
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Image Credits: Ravivar vichar

भारत में स्वयं सहायता समूह की शुरुआत 1991 में  माइक्रोफाइनेंस से सीधे जुड़ाव के साथ हुई थी. तब से SHG की संख्या बढ़ती जा रही है. स्वयं सहायता समूह की शुरुआत आर्थिक सशक्तिकरण के लक्ष्य को पाने से हुई. इस SHG मॉडल को 'जीविका' कहा गया, जिसमें स्वास्थ्य को बढ़ावा देने का काम शुरुआत में शामिल नहीं था. निम्न आय वाले समुदायों में SHG ने माताओं और बच्चों की स्वास्थ्य पर काम शुरू किय. 

 इसमें सर्कार के साथ गैर सरकारी संघठन भी साथ आये.  जैसे बिल एंड मेलिंडा गेट्स फाउंडेशन (बीएमजीएफ) ने परिवर्तन परियोजना को फंड किया, जिसे गैर-सरकारी संगठन (एनजीओ) प्रोजेक्ट कंसर्न इंटरनेशनल (पीसीआई) द्वारा शुरू किया गया .  

परिवर्तन परियोजना ने सामुदायिक स्वास्थ्य, प्रजनन स्वास्थ्य, स्वच्छता और पोषण संदेशों को सिखाने के लक्ष्य से गांव के भीतर महिलाओं के स्वयं सहायता समूहों (SHG) को संगठित किया. परियोजना के पहले चार वर्षों में, बिहार के 8 जिलों के 64 ब्लॉकों में 26,514 समूहों के माध्यम से लगभग 400,000 महिलाओं तक पहुंचा गया. हेल्थ ट्रेनर्स इन स्वयं सहायता समूहों का नेतृत्व करते हैं जिन्हें 'सहेली' कहा जाता है. ये सहेलियां बिहार सरकार (जीविका) की निगरानी में काम करती हैं. हेल्थ ट्रेनर्स समूह के सदस्यों को लीडरशिप स्किल विकसित करने में मदद करतीं हैं और महिलाओं को स्तनपान, स्वच्छता, पोषण, सामाजिक समर्थन, और सुरक्षित मातृत्व पर ट्रेनिंग देते हैं.

माधोपुर नौरंगिया की सहेली रानी कुमारी, माताओं को अपनी और अपने बच्चों की देखभाल करना सिखाकर महिलाओं के स्वास्थ्य को बेहतर बनाने में मदद करती हैं. लेकिन शुरुआत में उन्हें गांव में विरोध का सामना करना पड़ा. परिवहन तक सीमित पहुंच और अविश्वास के माहौल की वजह से गांव की गर्भवती महिलाओं ने पास के प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र में अपनी डिलीवरी कराने से इनकार कर दिया.

रानी गांव की एक गर्भवती महिला जमीला के बारे में बताती है जिन्होंने सरकारी स्वास्थ्य सेवाओं का लाभ लेने पर कड़ी आपत्ति जताई थी और अस्पताल के बजाय घर पर जन्म देने की ज़िद की. धीरे-धीरे उन्हें सुरक्षित मातृत्व और शिशु स्वास्थ्य के बारे में समझाया गया, ट्रेनिंग लेने के बाद वे पूरी तरह समझ गई कि सरकारी स्वास्थ्य सेवाएं पारंपरिक चिकित्सा से बेहतर है. आज, जमीला महिला स्वयं सहायता समूह की सचिव है और अपने गांव में गर्भवती महिलाओं की देखभाल कर यह सुनिश्चित करती हैं कि हर प्रसव स्वास्थ्य केंद्र में ही हो. 

माधोपुर नौरंगिया में चार बच्चों की मां निशा उनके पति की साथ रज़ाइयां और गद्दे बेचने का काम करती है. निशा ने भी शुरू में स्वयं सहायता समूह में बचत का विरोध किया. परिवर्तन स्टाफ ने यह समझाया कि बचत से कैसे आर्थिक और सामाजिक सशक्तिकरण के साथ-साथ मातृ एवं शिशु स्वास्थ्य सुनिश्चित करने में भी मदद मिलती है. समय के साथ, निशा ने जल्द ही बचत की शक्ति को समझ लिया और समूह में मिली सीख को अपनी ज़िंदगी में अपनाया. निशा ने बचत कर 25,000 रुपये का लोन लिया. इस लोन से अपने पति के साथ रजाई और गद्दे के व्यवसाय को बढ़ाया और समय पर रीपेमेंट कर दिया. 

माधोपुर नौरंगिया में महिलाओं की अपनी और अपने नवजात बच्चों की बेहतर देखभाल करने की समझ में काफी बदलाव आया है. एक दूसरे से सीखकर महिलाएं अपने ज्ञान को बांट रही हैं और सुरक्षित मातृत्व को बढ़ावा दे रही हैं.  

प्रोजेक्ट कंसर्न इंटरनेशनल माधोपुर नौरंगिया बिल एंड मेलिंडा गेट्स फाउंडेशन आर्थिक सशक्तिकरण स्वयं सहायता समूह