कला हमेशा से ही अपनी छुपी-दबी भावनाओं को साझा करने का एक ख़ूबसूरत ज़रिया रहा है. कला के कई रंग,रूप, और आकार हैं. इसका एक ख़ूबसूरत रूप कशीदाकारी है. कशीदाकारी से सिर्फ फूलों पत्तियों को ही नहीं, पर अपने अनुभवों, भावों, और विचारों को भी सुंदर आकार और रंग दिये जाते हैं. पूरे भारत में कई महिलाओं ने ऐतिहासिक सुईवर्क के ज़रिये अपनी स्वतंत्रता, पहचान और प्रतिरोध को दर्शाया है. पहले के समय में लैंगिक भूमिकाओं और सामाजिक अपेक्षाओं ने कढ़ाई को सिर्फ स्त्रीत्व के रूप में देखा.
इतिहास बताता है कि महिलाओं ने इस सुई धागे से जुड़ी लैंगिक भूमिकाओं को त्याग, इसे क़लम की तरह इस्तेमाल किया और अपनी कहानी बुनदी. पंजाब की फुलकारी एम्ब्रॉइडरी से बनी लताओं और शानदार रंगों के चमकीले पैटर्न उल्लास की भावना को दर्शाते थे. लेकिन,1947 के विभाजन ने इसके पैटर्न को धुंदला और रंगों के फीका कर दिया. बड़ी सहजता से अशांति, विस्थापन और हिंसा से पनपी व्यथा को कशीदाकारी के ज़रिये कपड़े पर उकेरा गया. फूलों और ज्योमेट्रिकल पैटर्न से ऊपर उठकर, कढ़ाई महिलाओं के लिए चुप रहकर अपनी कहानी सुनाने का एक रंगबिरंगा ज़रिया बन गई. उन्होंने अपने जीवन के क्षणों,अनुभवों, विचारों और विश्वासों को सुई धागे कि ज़रिये एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी तक पहुंचाया. महिलाओं की इस कला के पीछे एक छिपी हुई अनूठी कहानी थी जो उसकी भावनाओं के साथ-साथ उसकी यादों का भी चित्रण थीं.
पंजाब की महिलाओं ने अपने विभाजन के दर्द को दूर करने के लिए कढ़ाई का सहारा लिया. उनकी टेपेस्ट्री कलाकृतियों ने क्रोध के दृश्यों, शरणार्थियों से भरी ट्रेनों, जबरन पलायन, पीछे छूटे घरों और पुरानी यादों का दस्तावेजीकरण किया. परिवार बिखर गए, महिलाओं के साथ दुर्व्यवहार हुआ, उनका अपहरण कर लिया गया, और ग़रीबी ज़िंदगी छीन रही थी- ये कहानियां उन्होंने कपड़े पर बुनी. पितृसत्ता में गड़ी बाल विवाह, पर्दा प्रथा और दहेज़ की पीड़ा भी बांटी. ये वो कहानियां थी जो वे सुना नहीं सकती थी, शायद उनका सुनने वाला भी कोई न था.
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कश्मीर घाटी लंबे समय से हिंसा और विरोध से जूझ रही है. राजनीतिक संघर्ष, इंटरनेट बैन और कर्फ्यू के दौरान, कशीदा ने महिलाओं को अपनी व्यथा बांटने और मुश्किल समय का मुकाबला करने का होंसला दिया. सदियों से चली आ रही यह पारंपरिक कश्मीरी कशीदाकारी धरती की जन्नत कहे जाने वाले कश्मीर की ख़ूबसूरती को दर्शाती है. इसे ज़्यादातर पुरुषों द्वारा किया जाता था. लेकिन वहां चल रहे टकराव और रोज़गार की खोज में महिलाओं ने पुरुष-प्रधान नौकरियों में अपनी पकड़ बनाई. कशीदा को कश्मीरी महिलाओं ने अभिव्यक्ति और सशक्तिकरण का साधन बनाया.
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ब्रिटिश राज में, सरकार ने भारतीय टेक्सटाइल पर कई तरह की पाबंदियां लगाईं, और कशीदकारों की वस्तुओं पर टैक्स लगाया, जो टेक्सटाइल इंडस्ट्री के लिए ख़ासकर बंगाल के लिए एक कठिन लड़ाई साबित हुई. गरीबी और भुखमरी से बचने के लिए बंगाल के लोगों ने कांथा कढ़ाई का सहारा लिया हुआ था जिसपर लगी बंदिशों ने मुसीबत और बढ़ादी. स्वदेशी आंदोलन के दौरान, कांथा कढ़ाई ब्रिटिश शासन के ख़िलाफ़ विरोध का प्रतीक बनी. ब्रिटिश वस्तुओं का बहिष्कार कर भारतीय उत्पादों को बढ़ावा देने और लोगों को आत्मनिर्भर बनने में कांथा कढ़ाई ने सहायता की. विभाजन ने लोगों को पड़ोसी देशों में पलायन करने पर मजबूर कर दिया, जिसके साथ कांथा की संस्कृति दम तोड़ने लगी. एक प्रमुख बंगाली कशीदाकार प्रतिमा देवी ने ग्रामीण महिलाओं को कांथा की कला सिखाकर उन्हें सशक्त बनाया, और साथ ही, वर्षों पुरानी संस्कृति को फिर से जीवित किया.
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गुजरात 2002 के दंगों के दौरान, कच्छ में पीड़ित महिलाओं ने अपने दर्द को कलात्मकता में ढाला. घरों और रोज़गारों का बिखर जाना, अपनों की मृत्यु और विस्थापन के दृश्य, सब कुछ कपड़े, फ्रेम और धागों में सिमट गया.
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ये कहानी सुनाती महिलाएं तो कहीं खो गई, पर उनकी कला अमर है. इंटरनेट पर इनकी कला की तस्वीरें मिल जाएंगी, पर इनके कलाकारों का कुछ पता नहीं. भारत में ऐसे कई कलाकारों को वो पहचान नहीं मिल पाती जिनकी वो हक़दार हैं, सिर्फ इसीलिए क्योकि ये कलाकार चूड़ियां पहनती हैं. आपके घरों में भी दादी-नानी ने कशीदाकारी कर आपके लिए कुछ ख़ास बनाया होगा, माँ ने कभी तोहफ़े में एम्ब्रॉयडरी कर कुछ दिया होगा. इस तरह वो शायद सिर्फ डिज़ाइन नहीं बनतीं, पर सुई धागे से प्रेम बुनती हैं. अगली बार कशीदाकारी की तारीफ करें, तो भूले न कि ये महज़ धागा, रंग, और डिज़ाइन नहीं, एक कशीदाकार की कहानी है.