कैफ़ी आज़मी एक ऐसे शायर थे जिन्होंने उर्दू अदब को जिया और उनकी शायरी आज भी कई जज़्बातों को बड़ी आहिस्ता से बयां कर रही है. आज वो सिर्फ अपनी शायरी में नहीं, पर मिजवा फाउंडेशन के ज़रिये भी ज़िंदा है. मिजवा फाउंडेशन का नाम उत्तर प्रदेश में उनके गांव मिजवां के नाम पर पड़ा. कैफ़ी आज़मी जब लकवाग्रस्त स्ट्रोक से उनके बाएं हाथ ने काम करना बंद कर दिया. मुंबई की सुख-सुविधाओं को छोढ़, वे मिजवां, अपने घर वापस आ गए. वही गांव जहां कैफ़ी आज़मी पैदा हुए, पले-बढ़े, और वहां की दिक्कतों को पहचाना. उनके मानना था कि असली प्रगति वही है जो गांव की गलियों से होकर गुज़रे. मिजवां कि दिक्कतों को जान समझकर, उन्होंने उन्हें दूर करने का सोचा और 1993 में मिजवां वेलफेयर सोसाइटी की स्थापना की.
उस समय, उनके गांव में सड़कों, स्कूलों और स्वास्थ्य सुविधाओं तक पहुंच नहीं थी. गांव को बिजली दिन में कुछ ही घंटेमिल पाती थी, बाल विवाह जैसी कुरीतियां आम थी. उनके सपना था अपने गांव को आत्मनिर्भर बनते देखना जहां संसाधनों तक पहुंच हो, समाज में समानता हो, और खुशहाली हो. उनके ये सपना पूरा किया मिजवां वेलफेयर सोसाइटी ने. आज मिजवां के हालात बेहतर हैं. वहां लोगों की पास रोज़गार, मजबूत बुनियादी ढांचे हैं, पक्की सड़कें, बिजली, शिक्षा, और टेलीफोन है. 2002 में उनके निधन के बाद, उनकी बेटी शबाना आज़मी और उनकी गॉडचाइल्ड नम्रता गोयल मिजवां फाउंडेशन को संभाले हुए है. ये फाउंडेशन आपदा राहत और पुनर्वास, शिक्षा, आजीविका, खेल, स्वास्थ्य, तकनीकी शिक्षा, माइक्रो क्रेडिट, और महिला उद्यमिता की लिए डट कर काम करती है.
हाल ही में स्वयं सहायता समूह की महिलाओं ने फूलपुर में 'मां की रोटी - सेंटर' की शुरुआत की. ये समूह मुख्य रूप से निराश्रित माताओं से बना है जो इस कैंटीन को चलाएंगी. ये SHG महिलायें रोज़ाना करीब 60 - 80 जरूरतमंद लोगों जैसे मजदूरों, फल-सब्जी विक्रेताओं को पौष्टिक भोजन परोस कर आय अर्जित करेंगी. 'मां की रोटी - सेंटर' को "कोई गरीब नहीं, कोई भूखा नहीं, और आर्थिक विकास" के गोल को पूरा करने के लिए सुरु किया गया है. मिजवा फाउंडेशन की ऐसी पहलों से महिलाओं के जीवन में बदलाव आया है. ये महिलाएं अब अपने परिवारों को बेहतर ज़िन्दगी डे सकेंगी और बेहतर जीवन स्तर हासिल कर सकेंगी.