अर्थसंगिनी ने बताये फायनेंशिअल लिट्रेसी के मायने

सोचना और अपनी सोच को अमल में लाना दो अलग अलग बातें है. अर्थसंगिनी के ज़रिये शानू ने के स्किल डेवेलपमेंट और फायनेंशिअल लिट्रेसी को ग्रामीण महिलाओं तक पहुंचाया. अर्थसंगिनी यानि आर्थिक सहेली.

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डावोस की वर्ल्ड इकोनॉमिक फोरम में दुनिआ के बड़े लीडर्स से मिलना हो या लिटरेचर फेस्ट के मंच पर बोलना, वो हर जगह मौजूद है. महिलाओं की लीडरशिप और आर्थिक आज़ादी पर आर्टिकल लिखना हो या टीवी स्टूडियो में डिबेट करना, वो वहां भी मौजूद है. लेकिन सबसे पहले वो मौजूद है जहां सबसे ज़्यादा ज़रुरत है यानि ज़मीन पर. वो है शानू मेहता, जो बातों से एक कदम आगे बढ़कर ज़मीनी स्तर पर बदलाव लाई. 

सोचना और अपनी सोच को अमल में लाना दो अलग अलग बातें है. अर्थसंगिनी के ज़रिये शानू ने  के कौशल विकास ( स्किल डेवेलपमेंट ) और वित्तीय साक्षरता (फायनेंशिअल लिट्रेसी ) को ग्रामीण महिलाओं तक पहुंचाया. अर्थसंगिनी यानि आर्थिक सहेली, एक ऐसी संस्था जो सालों से गाँव की महिलाओं के लिए उनके बीच रहकर काम कर रही है. शानू बताती हैं - "जब भी गांवों में महिलाओं से बात होती तो उनकी काबिलियत महसूस होती लेकिन वह छुपी हुई रहती." महिलाओं में पैसे कमाने का और अपने पैरों पर खड़े होने का जज़्बा तो था लेकिन कहीं दबा कुचला था. शानू ने इसको पहचाना और इन महिलाओं का साथ देने का सोचा. उन्होंने महसूस किया कि ये महिलाएं अपने साथ परिवार को भी बेहतर ज़िन्दगी दे सकती हैं. धीरे-धीरे महिलाओं की रूचि समझकर उन्हें अगरबत्ती, कपड़े, सैनेटरी पेड, खिलौने बनाने की ट्रेनिंग दी जो उनका स्किल डेवेलपमेंट प्रोग्राम बना.  इसको एक कदम आगे ले जाते हुए रुपये-पैसों की बचत के बारे में भी बताया जो कि फायनेंशिअल लिट्रेसी केम्प के ज़रिये हुआ. आज, सालों की कोशिशों के बाद पांच हज़ार से ज्यादा महिलाओं को प्रशिक्षण मिल चुका है और वो अपने पैरों पर खड़ी है. कुछ महिलाओं के बनाये हुए उत्पाद विदेश में भी बिक रहे हैं.

शानू मेहता की इस पहल ने साबित किया कि महिलाओं में मेहनत और योग्यता की कमी नहीं, बस थोड़ा सा साथ देकर उनकी आर्थिक आज़ादी की चुनौती को दूर किया जा सकता है. अब हमें बातों से ऊपर उठकर, ज़मीनी स्तर पर काम कर बदलाव लाने की ज़रुरत है ताकि महिलाओं की आर्थिक आज़ादी की क्रांति को बढ़ावा मिल सके.

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