कर्मयोगिनी गैराज गर्ल्स

सबसे पिछड़े समझे जाने वाले खालवा की गायत्री जैसी पच्चीस से ज्यादा इन लड़कियों ने साबित कर दिया कि वो किसी छोरे से कम ना है। प्रदेश का सबसे अलग ये गैराज सिर्फ लड़कियां संभाल रही हैं। इन तानों और विरोध ने गांव की बेटियों के आत्मविश्वास को और मजबूत कर दिया।

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Khandwa Bike Girls

कर्मयोगिनी गैराज में बाइक सुधारती लड़की (Image Credits: Ravivar Vichar)

आदिवासी गांव खालवा की सड़क के किनारे हाथों में पाना और पिंचिस लिए बैठी गायत्री को देख हर कोई राहगीर ठिठक गया। गायत्री अपनी अपनी मस्ती में बाइक के पास बैठी हुई नट खोल रही है। इसी के पास दूसरी बाइक का ऑइल चेक किया और अनिता ने प्लग दबाया,बाइक सटार्ट। बाइक सटार्ट होते ही अनिता और गायत्री के चेहरे पर मुस्कान बिखर गई। सबसे पिछड़े समझे जाने वाले खालवा की गायत्री जैसी पच्चीस  से ज्यादा इन लड़कियों ने साबित कर दिया कि वो किसी छोरे से कम ना है। प्रदेश का सबसे अलग ये गैराज सिर्फ लड़कियां संभाल रही हैं।ये गैराज गर्ल्स सुर्ख़ियों में है। युवकों के काम समझे जाने वाले इस मैकेनिक काम को लेकर शुरू में बहुत ताने सुने। इन तानों और विरोध ने गांव की  बेटियों के आत्मविश्वास को और मजबूत कर दिया। 

Khandwa Bike Girls

कर्मयोगिनी गैराज में बाइक सुधारती लड़की (Image Credits: Ravivar Vichar)

कोरकू आदिवासी समाज के ये लोग रोजगार की तलाश में पलायन और शोषण को मजबूर थे। कोविड काल में हालत बिगड़ने से इन परिवारों ने कुछ करने का ठाना। गैराज संभाल रही सनौली खेड़ा की गायत्री कास्डे कहती हैं -" हमारे परिवार में मान और पिता को मेहनत करते देख हमने भी कुछ करने का सोचा। इसी बीच मैकेनिक की ट्रेनिंग करने गए। बाहर के लोग तो ठीक ,शुरू में घर वालों ने ही विरोध किया। ज़िद की और काम सीखा। मैं चार सौ रुपए कमा ही लेती हूं। " खंडवा में यह ट्रेनिंग की व्यवस्था सपंदन सेवा समिति ने करवाई। धीरे-धीरे ट्रेनिंग लेने वाली लड़कियां एक से दो और देखते ही देखते पचास लड़कियों ने ट्रेनिंग ले ली। 

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कर्मयोगिनी गैराज में बाइक सुधारती लड़की (Image Credits: Ravivar Vichar)

अलग-अलग इलाकों में गैराज चलाने वाली लड़कियों में ही शामिल कालम खुर्द की मंटू कसीर कहती हैं -" लोगों ने बहुत हंसी उड़ाई। यहां तक कह दिया कि इनसे क्या नट-बोल्ट खुलेंगे।हमें तो धुन सवार थी। आखिर मैं इंजन तक का काम सीख गई। रोज़ अच्छी कमाई हो रही है।" इसी अंदाज़ में मामा डोह की कुंठा मसकोले और अनिता भी गैराज में अपनी जगह बना चुकी हैं। 
कुंठा कहती हैं -" यह काम हमारे लिए चुनौती था। अब गांव के लोग भी हमसे खुश हैं। "
राधा यादव कहती हैं -"हमने कंप्रेशर भी खरीद लिया। काम धीरे -धीरे बढ़ रहा है।" मेहुल गांव की शिवानी के पिता पूनम चंद कहते हैं -" बच्ची पर भरोसा कर हमने खंडवा ट्रेनिंग में भेजा। आज वह खुद अपने पैरों पर खड़ी है। "

खालवा गांव के ये लोग हर साल पलायन करते रहे। स्पंदन सेवा समिति की संस्थापक सीमा प्रकाश कहती हैं -"पलायन और शोषण को रोकने के लिए हमने लड़कियों को बाइक रिपेयरिंग ,मोबाइल रिपेयरिंग सहित कुछ और ट्रेनिंग दिलवाई।अलग -अलग गांव में ये कर्मयोगिनी अपना -अपना गैराज चला रहीं हैं।बेरोजगार और परिवार पर आश्रित ये बच्चियां अब आत्मनिर्भर बन गईं।"
ठेठ आदिवासी इलाके में इन लड़कियों ने अपने पैरों पर खड़े हो कर साबित कर दिया कि परिवार के लिए वो भी खड़ी हैं। सड़कों पर बसों का आवागमन नहीं होने से लोग बाइक जैसे विकल्प पर निर्भर है। ये भी इन मैकेनिक लड़कियों के लिए कमाई का अधिक अवसर दे रहा है। प्रशासन चाहे तो स्पंदन समिति के साथ आजीविका मिशन भी ऐसी लड़कियों को स्वसहायता समूह से जोड़ कर दोहरी मदद कर सकती है। 

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