शिक्षा, गरीबी के जकड़ देने वाले चंगुल से छूटने का सबसे बड़ा ज़रिया है. उच्च शिक्षा संस्थानों तक पहुंच ओर पैसों की कमी से 'मुझे पढ़कर कुछ बनना है' जैसे सपने देखने वाली आखें नम हो जाती हैं. पढ़ाई की कमी से जिन परेशानियों का सामना ग्रामीण महिलाओं ने किया, वे चाहती हैं ये दिक्कते उनके बच्चों के आड़े न आएं. कई महिलाएं स्वयं सहायता समूहों में सिर्फ इसीलिए जुड़ती हैं ताकि उनके बच्चों की फीस का इंतज़ाम हो सके. कुछ ऐसी ही कहानी है झारखंड कैडर के आईएएस अधिकारी (IAS Officer) रमेश घोलप (Ramesh Gholap) की.
रमेश घोलप के पिता गोरख घोलप साइकिल के पंक्चर बनाने की दुकान चलाते थे और मां विमल देवी चूड़ियां बेचा करती थीं. रमेश कभी पिता तो कभी मां का हाथ बंटाया करते. रमेश ने गांव के सरकारी स्कूल से शुरुआती शिक्षा ली. साल 2005 में 12वीं कक्षा में थे तब पिता की मौत हो गई. उन्होंने 12वीं बोर्ड परीक्षा में 88.5 % अंक हासिल किए. एजुकेशन में डिप्लोमा करने के बाद वे गांव के ही एक स्कूल में पढ़ाने लगे. डिप्लोमा के साथ ही उन्होंने बीए की डिग्री भी ली.
जब उन्हें अपनी पिता की निधन का दुखद समाचार मिला तो वे अपने गांव जाने के लिए दौड़े. लेकिन, उनके पास बस का किराया भी नहीं था जो मात्र 7 रूपये हुआ करता था, रमेश के विकलांग (दिव्यांग) होने की वजह से उन्हें सिर्फ 2 रूपये चाहिए थे. एक पड़ौसी की मदद से वे अपने गांव पहुंच पाए. पढ़ाई में पैसे कम पड़े, तो उनकी मां ने SHG से जुड़कर गाय खरीदने के लिए 18 हज़ार रूपए का लोन लिया. इस राशि से रमेश ने पढ़ाई पूरी की. मां चाहती थी बेटा बड़ा अफसर बने ताकि गरीबी की कुचक्र से जल्दी बाहर निकल सके. रमेश ने यूपीएससी की तैयारियां शुरू कर दी. वर्ष 2012 में रमेश घोलप ने 287वीं रैंक के साथ झारखंड कैडर के आईएएस अफसर बन गए.
जब उनकी मां ‘विधवा पेंशन योजना’ का आवेदन करने गई तब वहां के कर्मचारी ने उनसे पेंशन शुरू करवाने के बदले में रिश्वत मांगी. उनके साथ बुरा व्यवहार भी किया गया. इस घटना से आहात होकर भ्रष्टाचार को ख़त्म करने की लिए उन्होंने UPSC पास करने की ठानी. गांव के सरपंच चुनाव में अपनी माता को उम्मीदवार बनाया जिसमें उन्होंने सामाजिक उत्थान एवं शिक्षा के ज़रुरत को बढ़ावा देने की लिए चुनाव लड़ा. उनकी माता कुछ ही वोटो के अंतर से चुनाव हार गई. इस बात पर गांव वालों ने उनका काफी मजाक उड़ाया था.
आईएएस रमेश घोलप की एक फोटो काफी वायरल हुई जो उनके गांव में खींची गई थी. उस फोटो में उन्हें सड़क किनारे ज़मीन पर एक बुज़ुर्ग के साथ हंसते हुए देखा गया. आज रमेश की सक्सेस स्टोरी (success story) से उनके गांव का बच्चा-बच्चा वाकिफ है. तमाम परेशानियों, चुनौतियों, और संघर्षों के बाद उनकी एक सफलता ने मानों सब हल कर दिया. उनकी मां ने पढ़ाई को एहमियत दी, उन्हें पढ़ाने के लिए लोन लिया, और कभी न हारने की सीख दी. आज वे पूरे गांव के लिए तो मिसाल है ही, पर स्वयं सहायता समूहों के महिलाओं का होंसला भी है जो आज अपने बच्चों को अच्छी शिक्षा देकर उनके कल को मज़बूत बनाना चाहती है.
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