“बाबूजी का आर्थिक स्थिति अच्छा नहीं था, ऊ बड़ी मोसकिल से हम भाई बहन को दसवीं तक पढाये. हमारा आगे पढ़ने का बहुत मन था पर बाबूजी के पास पैसा नहीं होने के कारण हम मन मार के घर दुआर संभालने लगे. एक दिन एक जीविका दीदी हमारे चोरौत गांव आयीं और बोलीं की हमको भी जीविका समूह से जुड़ना चाहिए. पहले तो बाबूजी को यकीन नहीं हुआ, ऊ सोचे ई औरत हम लोग को मूरख बना रही है, हमको ठगने आई है. हमको ऊ दीदी का बात में दम लग रहा था पर हिम्मत नहीं हो रहा था कि बाऊजी से कैसे बोलें क्योंकि बाऊजी तो उन पर बहुत भड़के हुए थे. पड़ोस के गौतम भैया हमारे बगले में खड़े थे, हम उनको इशारा किए कि ए भैया बाबू जी के तनिक समझा दिऔ. भैया बाऊजी से बोले, चच्चा तनिक रुक जाऊ, हमरा कनिक बात करे दिया. भैया उनसे घंटा दू घंटा बात किए. हम भी उनके बगले मैं बैठकर पूरा बात बड़ी ध्यान से सुने. फिर हम दूनों को भरोसा हो गया की ऊ कोई फर्जी औरत नहीं है बल्कि असली है और जीविका समूह पूरे बिहार में बहुत अच्छा काम कर रहा है. भैया बाबूजी को समझाए-बुझाए कि हमको भी इस समूह से जुड़ना चाहिए. बाबूजी भैया को बहुत मानते हैं, बोले गौतम तुम कह रहे हो तो सब ठीके होगा. उस दिन रक्षाबंधन था, रक्षाबंधन पर भैया की तरफ से ई एक बड़का तोहफा था हमारे लिए.आज हम जीविका समूह के कारण ही अपने पैर पर खड़ा हैं आउर बाबूजी का भी बोझ कम कर पा रहे हैं.” यह बात बिहार के सीतामणि जिले के गांव चोरौत की अनुपम बड़े फक्र से बताती हैं.वह बिहार कि प्रचलित मैथली भाषा में अपनी बात सहज कहती है। उसे हिंदी से ज्यादा अच्छी मैथली आती और उत्साह में वह एक सांस में ये सब कहती है।
समूह की मीटिंग करते हुए (Image Credits: Ravivar Vichar)
आज अनुपम को लोग जीविका दीदी के नाम से सिर्फ उसके गांव में ही नहीं जानते बल्कि दूर दराज के गांवों में भी पहचानने लगे हैं.अनुपम कहती हैं “शुरू- शुरू में तो हमको बहुत शरम आता था. लोग बड़ा अचरज से देखते थे कि ई औरत झोला लेकर रोज़ रोज़ कहां जाती है. समूह बनाना इतना आसान नहीं था. लोग भरोसे नहीं करते थे. बड़ा मोसकिल से एक महीना में अपना जीवका समूह बनाने के लिए दस औरतों को जुटा पाए. हम रोज़ सबेरे घर का कामकाज जल्दी निपटाकर निकल जाते थे. दुआर-दुआर घूमते थे, औरत लोगों को समझाते थे. ऊ पहले तो हां कहती थी, पर बाद में पलटी मार देती थी. शुरू में तो बहुत दिक्कत आया, लगा कि ई काम हमसे नहीं हो पायेगा, पर हम हिम्मत नहीं हारे. भिड़े रहे तब जाके हमारा ‘महालक्ष्मी जीविका समूह’ बन पाया.’ अनुपम आज कई जीविका समूहों की क्लस्टर मैनेजर यानि सीएम हैं.
केंद्र सरकार और राज्य सरकार की ओर से ग्रामीण क्षेत्र की महिलाओं को गरीबी रेखा से ऊपर लाने के लिए,उन्हें आत्मनिर्भर बनाने के लिए गांव - गांव में जीविका समूह चलाये जा रहे हैं. इसका उद्देश्य गांवों की गरीब महिलाओं को सामाजिक और आर्थिक रूप से मज़बूत बनाना है. जीविका योजना की शुरुआत बिहार में 2007 में विश्व बैंक की मदद से हुई और 2009 आते आते पूरे बिहार में इस योजना को लागू कर दिया गया.
अनुपम कहती हैं कि इस “जीविका” से ही मेरे साथ साथ बहुत सी महिलाओं की ज़िन्दगी बदली है. वो औरतें जो पहले कभी अपने घर की चौखट लांघ कर बाहर तक नहीं निकली वो आज खुद बैंक, बाज़ार और समूह के कार्यालय जाती हैं. सैकड़ों लोगों के बीच अपनी बात रखती हैं, बैठक करवाती हैं. जिनके पास एक धुर जमीन नहीं थी आज वो महिलाएं “जीविका” से कम ब्याज पर कर्ज लेकर पक्के घर बना रही हैं. ये महिलाएं अगरबत्ती, सिलाई, कढा़ई और मिथिला पेंटिंग के ज़रिये महीने के 3000 रुपये तक कमा लेती हैं.
अनुपम के समूह की एक दीदी कहती है कि “हम ज्यादा पढ़ा लिखा नईखे, पर काम करत करत सब याद हो गल बा कि एक समूह में 10 महिला रहेली,10 समूह जोड़कर एक ग्राम संगठन बनेला, और 20 ग्राम संगठन के जोड़के एक क्लस्टर बनेला.
समूह की मीटिंग करते हुए (Image Credits: Ravivar Vichar)