मिट्टी वो है जो कभी नहीं मिटती.इसलिए कहा गया है निर्मम कुम्हार की थापी से कितने रूपों में कुटी,पिटी ; हर बार बिखेरी गई किंतु मिट्टी फिर भी तो नहीं मिटी .और ऐसे ही हमारी लोक कलाएं भी मिटती नहीं है,वो बार-बार वापस आती है. ऐसा इसीलिए भी क्योंकि हमारे पुरखों ने बड़े जतन से इन्हे संभाला सहेजा.बात मिट्टी से शुरू हुई थी और मिट्टी की अद्बुत कला में से एक टेराकोटा है.टेराकोटा मतलब पकी हुई मिट्टी,यह इटालियन शब्द है. गीली मिट्टी को पकाकर जो भी बनाया जाता है उसे टेराकोटा कहते है.भारत में प्राचीन काल से इसे काम में लिया जाता है. टेराकोटा की इस कला में बुन्देलखंड इलाके के छतरपुर जिले के गांव धामना की अपनी एक परंपरा रही है. यहां के कई परिवार इस हूनर में पीढ़ियों से लगे रहे. जैसे-जैसे समय परिस्थिति और पसंद बदली इन परिवारों की बाद वाली पीढ़ियां अपने पुश्तैनी धंधे और हूनर को छोड़,खेत मजदूरी में चले गए. इस तरह परिवार की महिलाएं या तो घर की चार दीवारी में सिमट कर रह गई या खेतों में मजदूरी का रास्ता अपना लिया. टेराकोटा के काम से कमाई का जरिया कम होता चला गया, जब पैसे की कमी ने नयी पीढ़ी को घेरा तो उसने नए रास्ते चुन लिए. लेकिन कुछ सालों में ही खेती मजदूरी में मिले शोषण और काम मजदूरी ने इस गांव के लोगों को परेशान कर दिया. इसकी सबसे ज़्यादा शिकार हुई गांव की महिलाएं.
कुछ साल तो यह सोचने में लग गए कि आखिर किया क्या जाए. इधर लगातार बिगड़ते हालात ने परेशान कर रखा था.कोई रास्ता सूझ नहीं रहा था. लेकिन नयी राह चलने के लिए कई बार पीछे मुड़कर देखना भी ज़रूरी होता है.और यही इन महिलाओं ने भी किया.उन्हें याद आयी अपनी पुश्तैनी कला और हूनर. फिर बना एक प्लान. सबसे पहले तो महिलाओं ने मिलकर रोशनी महिला स्वसहायता समूह का गठन किया. समूह के गठन और काम करने की ज़िद्द से इन महिलाओं का जीवन रोशनी से जगमगा उठा. इस तरह लगभग ख़त्म हो चुकी टेराकोटा को फिर से ज़िंदा करने की ठानी. पहुंच गयी अपने गांव के बड़े-बूढ़ों के पास.दिल लगाकर सीखा और धीरे धीरे एक्सपर्ट बन गयी,आखिर खून भी तो मिटटी को ही पहचानता है. इन महिलाओं ने मिट्टी को तराशकर सोना बना दिया.
टेराकोटा से तैयार कलाकृति को सजाती हुई (Photo Credits: Ravivar Vichar)
बुंदेलखंड में कभी अभिशप्त समझे जाने वाली बेटियों ने ऐसी सोच रखने वालों को करारा जवाब दिया. इन बेटी-बहुओं ने चौके-चूल्हे से निकल कर आत्मनिर्भरता की नई इबारत गढ़ दी.यह संभव हुआ रोशनी स्वसहायता समूह की महिला सदस्यों को मिले जिला प्रशासन और आजीविका मिशन के मार्गदर्शन और सहयोग से. इन महिलाओं ने अपने पुरखों के हूनर को संरक्षित कर संवार दिया. ये महिलाएं अपने हाथों से मिट्टी से बनाए जाने वाले टेराकोटा की खूबसूरत मूर्तियां और खिलौने बना रहीं हैं.
गांव की एक घर छत पर बैठी हल्की बाई अपने काम में व्यस्त है.गीली मिट्टी का लौंदा हाथ में लिए वह उसे एक शेप दे रही है. हल्की बाई कहती हैं -" मेरी उम्र हो गई थी. खेत में मजदूरी करने जाने की हिम्मत नहीं बची इसीलिए उन्होंने कुछ नया करने की सोचा".इस सोच को लेकर वह अपने परिवार की बहुओं और बेटियों के साथ बैठी. दूसरी महिलाएं मजदूरी से तंग आ चुकी थीं. कुछ महिलाओं का जीवन तो घर में खाना बनाने और बच्चों को संभालना ही था.
टेराकोटा से तैयार कलाकृति को रंगते हुए (Photo Credits: Ravivar Vichar)
समूह सदस्य आगे बताती हैं - "हमने अपने परिवार की ही बड़े -बुज़ुर्गों से उन्होंने मिट्टी की इन कलाकृतियों को बनाना सीखा " .धीरे-धीरे यह बदलाव आया कि परिवार में पति और यहां तक के ससुर भी महिलाओं की मदद करने में जुट गए.आखिर SHG ने उन्हें भी मौका दिया वापस मिटटी में आकर आपने हाथ आजमाने का. आज महिलाएं खुश हैं, घर का काम निपटा कर उनको बाहर मजदूरी पर जाना नहीं पड़ता. और तो और उनके हूनर की पहचान और धाक प्रदेश के साथ पूरे देश में भी जम गई.
पुरखों की टेराकोटा कला को ज़िंदा कर रौशनी स्वसहायता समूह की इन महिलाएं की गांव और परिवार नया सम्मान दिलाया, वहीं पुश्तैनी पहचान को फिर स्थापित कर दिया. यह धामना गांव अब मिट्टी से बनी मूर्तियों और कलाकृतियों के लिए तो जाना ही जाता है, महिलाओं के वापस अपनी मिट्टी तक पहुंचने की मिसाल भी है.इन्हीं महिलाओं और पावन मिट्टी के लिए कहा गया है -
मिट्टी की महिमा मिटने में,मिट-मिट हर बार संवरती है,
मिट्टी मिट्टी पर मिटती है, मिट्टी मिट्टी को रचती है..।