रेशम जैसी मखमली हुई महिलाओं की ज़िंदगी

अपनी पुरानी पीढ़ियों की विलुप्त संस्कृति और पहचान रहे रेशम उत्पादन की कला को फिर से जीवित कर दिया. पिछड़े जिले में शामिल छत्तीसगढ़ की महिलाओं ने अपनी मेहनत से न केवल आत्मनिर्भर बनीं, बल्कि अपनी पुरानी परंपरा को लौटा कर ज़िंदगी को रेशम जैसी मखमली बना लिया.

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ककून से धागा निकालते हुए गांव पेंडरी महिलाएं (Photo Credit: Ravivar vichar)

छत्तीसगढ़ (Chattisgarh) प्रदेश के साथ देश में जांजगीर-चांपा, कोरबा, कोरिया, सूरजपुर जिले की महिलाओं का नाम सूरज की तरह दमक रहा है. जिले में रेशम उत्पाद और धागा निर्माण में इन महिलाओं ने महारत हासिल कर ली. इन जिलों के स्वयं सहायता समूह की महिलाओं ने मजदूरी छोड़ ककून पालन (cocoon rearing) और धागा निर्माण में अपना कारोबार शुरू किया. रीपा (Mahatma Gandhi Rural Industrial Park) के तहत जिला प्रशासन ने यह ट्रेनिंग दिलवाई. आत्मनिर्भर हो जाने के बाद इन महिलाओं में आत्मविश्वास देखा जा सकता है.

छत्तीसगढ़ के कई जिले के साथ जुड़ा पिछड़ेपन का दाग इन महिलाओं ने अपने दम पर हटा दिया. यहां के निवासी खासकर महिलाएं  खुश हैं. अपनी पुरानी पीढ़ियों की विलुप्त संस्कृति और पहचान रेशम उत्पादन की कला को फिर से जीवित कर दिया. ये महिलाएं अब परिवार में कंधा से कंधा मिलाकर साथ दे रहीं हैं. पिछड़े जिले में शामिल छत्तीसगढ़ के जांजगीर-चांपा,कोरबा,कोरिया और सूरजपुर की महिलाओं ने अपनी मेहनत से न केवल आत्मनिर्भर बनीं,बल्कि अपनी पुरानी परंपरा को लौटा कर ज़िंदगी को रेशम जैसी मखमली बना लिया.यहां कई जगह अब रेशम के धागे बन रहे. कपड़ा बुनने की ट्रेनिंग चल रही. आने वाले दिनों में छत्तीसगढ़ की ग्रामीण इलाकों की महिलाएं कोसा की खूबसूरत साड़ियां बनाती हुईं नज़र आएंगी. 

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ककून से निकले मटेरियल से धागाकरण करते हुए (Photo Credit: Ravivar vichar)

चांपा जिले के पेंडरी गांव के सरस्वती स्वयं सहायता समूह (Self Help Group) की अध्यक्ष अनिता कश्यप कहती हैं -" शुरुआत में घर पर ककून लाकर धागा बनाती थी. ठेकेदार को उसके भाव में देना मज़बूरी थी. घर चलाना मुश्किल हो जाता. आजीविका मिशन  (Ajeevika Mission) की योजना रीपा योजना से मेरी ज़िंदगी बदल गई. अब मैं ठेकेदारों के चंगुल से निकल गई. मुझे सेंटर मिल गया. मेरे पास 20 हैंडलूम और दस ऑटोमेटिक धागा बनाने की मशीनें हैं. अब मैंने 80 से ज्यादा महिलाओं को रोजगार दिया." 

चांपा के आजीविका मिशन के जिला मिशन प्रबंधक उपेंद्र कुमार दुबे कहते हैं -" जिले में महिलाओं ने नई पहचान बनाई. 40 से ज्यादा महिलाएं रेशम उद्योग से जुड़ गई. कई समूह की महिलाएं ट्रेनिंग ले रहीं हैं. आने वाले दिनों में इस जिले में कोसा से बनी साड़ियां भी बनने लगेगी. जिले में दो जगह 40 हेंडलूम मशीनें लग चुकी हैं. इन मजिलाओं को रेशम विभाग ककून उपलब्ध कराता हैं." कोरिया जिले में भी 15 उत्पादन केंद्रों पर रेशम उत्पादन हो रहा. 127 हैक्टेयर जमीन पर 3 लाख 74 हजार पौधों पर कोसा कीट पालन किया. इसमें 15 स्वयं सहायता समूह की 215 महिलाओं को रोजगार मिला. पिछले साल ही लगभग 17 लाख रुपए का धागा पश्चिम बंगाल और चांपा बेचा गया l               

सूरजपुर जिले के बसदई के गोठान ( महिलाओं का ऐसा समूह जो पालतू मवेशियों को डे केयर कॉन्सेप्ट की तरह ध्यान रखता है. इसी से खाद और वर्मी कंपोज़्ड तैयार करती हैं.) की छाया वस्त्रकार कहती है-" रेशम उत्पाद से धागा बनाने के पहले मैं मजदूरी ही करती थी. दिनभर धूप में काम के बाद भी पूरी तरह मजदूरी नहीं मिलती थी. धागा बनाने की ट्रेनिंग ली और अब मैं कम से कम आठ से 10 हजार रुपए महीना कमा लेती हूं." बसदेई के भारती स्वयं सहायता समूह की दूसरी सदस्य भी इस कारोबार से जुड़ गई. धीरे-धीरे मुनाफा देख कई महिलाएं इस कारोबार से जुड़ती जा रही.

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पेंडरी गांव में महिलाएं धागा तैयार करते हुए (Photo Credit: Ravivar vichar)

गोठान बसदेई के रीपा सेंटर में चाका बोडा, कोरबा की फूलबाई प्रधान ने इन महिलाओं को ट्रेनिंग दी. फूलबाई बताती हैं - " गोठान की महिलाएं बहुत मेहनती है. जिले में ककून से उच्च गुणवत्ता का धागा कैसे तैयार होता है, यह सिखाया जाता है. अच्छे धागे की कीमत भी बहुत मिलती है.इसे सोडा में उबाल कर सुखाया जाता है." जिले में यह ट्रेनिंग लगातार चल रही जिसमें महिलाओं को प्रोत्साहित किया जा रहा है.सूरजपुर के आजीविका मिशन के जिला परियोजना प्रबंधक ज्ञानेंद्र सिंह कहते हैं -" जिले में महिलाएं उत्साहित हैं रीपा गोठान में स्वयं सहायता समूह की महिलाएं भी शामिल हैं. जिले में 10  से ज्यादा समूहों की महिलाएं ककून पालन कारोबार से जुड़ चुकीं हैं.जबकि रेशम से धागा बनाने में 30 महिलाओं को ट्रेनिंग दी जा चुकी है. ये धागा तैयार कर एक एजेंसी को दे रहे जिससे महिलाओं को उनका मेहनताना तत्काल मिले."

जांजगीर-चांपा जिले में कलेक्टर ऋचा प्रकाश चौधरी और सीईओ जिला पंचायत ज्योति पटेल खुद इस प्रोजेक्ट को बढ़ावा दे रही. यहां रोजगार से जुडी महिलाओं को प्रोत्साहित कर रहीं.सूरजपुर जिले में भी जिला पंचायत की सीईओ लीना कोसम भी रेशम उद्योग से स्वयं सहायता समूह की महिलाओं को अधिक से अधिक जोड़कर आत्मनिर्भर बनाने में जुटीं हुई है.      



रेशम और कोसे की साड़ियां स्टेटस सिंबल 

देश में कोसा या रेशम से बने उत्पाद शुरू से लोकप्रिय रहे. पांच किस्म की रेशम में से शहतूत रेशम कीट (Bombyx mori ) का प्रचलन ज्यादा है.कोसे से बनी साड़ियां और दूसरे कपड़े को स्टेटस सिंबल माना गया.बड़े घरानों की महिलाएं इसे खास मौकों पर जरूर पहनती हैं. इसके उत्पाद और परम्परा के संरक्षण के लिए वस्त्र मंत्रालय के अधीन रेशम बोर्ड अलग से कम करता है. केंद्रीय रेशम बोर्ड के अनुसार रेशम का उत्पादन जहां 2003 -04 में केवल 15 हजार 742 टन था, वह बढ़ कर 2018-19 में 35 हजार 468 टन हो गया. सूरजपुर जिले में ही सौ महिलाओं को रेशम उद्योग से जोड़ने के प्रयास किए जा रहे. 

केवल तीन दिन की ज़िंदगी 

रेशम कीट की ज़िंदगी केवल तीन ज़िंदगी की होती है. इस बीच शहतूत की पत्तियों पर 300-400 तक अंडे देते हैं. दस दिन में लार्वा और 30 दिन में बड़ा हो जाता है. यह लार्वा अपने शरीर से लार ग्रंथियों से लार निकालता है जो सूख कर रेशम बन जाता है. इसे निकाल लिया जाता है. इसकी लंबाई एक हजार मीटर होती है. इसी रेशम से महिलाएं धागा बनाती हैं. अलग-अलग जिलों में धागा बनाने की यूनिट लगी है. 

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