"वो स्त्री है ... कुछ भी कर सकती है"

कल्पना, ज्योति ने मजदूरी पर जाना धीरे-धीरे कम किया. हालांकि खेत मालिकों और पटेलों ने ग्रुप को खत्म करने का दबाव बनाया. क्योंकि क़र्ज़ में दबी ये महिलाएं असल से कई गुना ज़्यादा सूद दे चुकी थी".लेकिन महिलाओं ने यह ठान लिया कि अब मजदूरी नहीं करेंगी.

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विवेक वर्द्धन श्रीवास्तव
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SHG महिलाएं मीटिंग में विचार विमर्श करते हुए (Photo Credits: Ravivar vichar)

स्त्री फिल्म का मशहूर डायलॉग वो स्त्री है कुछ भी कर सकती है. आज ऐसा मीम बन चुका हैं जो ज्यादातर महिलाओं की हंसी उड़ाने या उन पर तंज़ करने में इस्तेमाल होता है. लेकिन जब नर्मदापुरम ( होशंगाबाद) के छोटे से आदिवासी गांव सोमलवाड़ा की मालती यही डायलॉग इस अंदाज में बोलती है कि - "स्त्री कुछ भी कर सकती है". तो उसमें गर्व और खुशी दोनों छलकती है. क़रीब तीन साल की मेहनत और मशक्कत ने यह गर्व चेहरे पर गढ़ दिया और बोली में कॉन्फिडेंस ला दिया. वैसे यह बोलते वक्त मालती नोटों को गड्डी गिन रही थी और हिसाब मिला रहीं थी. कल रविवार जो था, रविवार है SHG के हिसाब किताब और आगे की प्लानिंग का दिन.

इस हिसाब को करता देख समूह की लगभग सारी दीदी ना केवल मौजूद है बल्कि हर मुद्दे और काम में हिस्सेदार है. जहां पहले रविवार हो या सोमवार हर दिन मजदूरी के नाम था वहीं आज रविवार मतलब बैठकर निर्णय लेने का दिन. कई सालों तक मजदूरी करने के बाद भी मुश्किलों से घर चला. मौसम और अत्याचार के पहिए बस इन्हे रौंदते चलें गए. कम उम्र में शादी और जल्दी हुए बच्चों ने इस कुचक्र को और मजबूत कर दिया. पास कुछ बचा तो पति की शराब ने डूबो दिया. खेत मालिकों का कर्ज चढ़ता गया और फिर लेनदारों का ब्याज भी बढ़ता गया.

मालती आगे बताती है -"खेत मजदूरी में सौ रुपए रोज़ भी नहीं कमा पाते थे." ऐसे में एक दिन उनके गांव में ब्लॉक सिवनी मालवा से आजीविका मिशन के ब्लॉक प्रबंधक मेहराज अली आए.उन्होंने मालती और किरण बाई,मीना,गुलाब बाई आदि महिलाओं को परेशानियां सुनी. उसके बाद राज्य आजीविका मिशन और स्वसहायता समूह के फायदे भी बताए. लेकिन बात बनी नही. नशे के आदी परिवार के मुखिया का डर और कर्ज उतारने की चिंता के कारण महिलाएं तैयार नहीं हुई. बात सब्र और विश्वास की थी. धीरे-धीरे उनको यह योजना कुछ दिन बाद फिर बताई. शुरू में कुछ महिलाएं  तैयार हुई और कुछ के पति भी तैयार हुए. इस तरह 10 महिलाओं ने मिलकर 'दुर्गा आजीविका स्वसहायता समूह' बनाया. इन कुछ महिलाओं के पास पशु थे वो बेहद कमजोर हो गए थे. तंगहाली में जब खुद के खाने के लाले पड़े हो तो इन पशुओं को पूरी खुराक कहां से मिले .

किरण बाई बताती हैं-"पहली बार SHG ने हर हफ्ते दस रुपए से बचत शुरू की. हालात ऐसे थे की यह दस रूपये भी बमुश्किल की इक्कट्ठे हो रहे थे". लेकिन काम में असली चमक तब आई जब उन्हें मिशन से दस हजार रुपए की ग्रांट मिली. यहीं से दीदियों का खुद पर भरोसा बढ़ने लगा.कल्पना, ज्योति पुराने दिन याद कर कहती हैं-" मजदूरी पर जाना धीरे-धीरे कम किया. हालांकि खेत मालिकों और पटेलों ने ग्रुप को खत्म करने का दबाव बनाया. क्योंकि क़र्ज़ में दबी ये महिलाएं असल से कई गुना ज़्यादा सूद दे चुकी थी".लेकिन महिलाओं ने यह ठान लिया कि अब मजदूरी नहीं करेंगी. इस शुरूआत के बाद समूह को अपना पहला लोन एक लाख रुपए मिला. यह तो वो रकम थी जिसने गांव में उत्सव का माहौल बना लिया. गांव में अन्य महिलाओं को जोड़ तीन और समूह बना लिए. इस मिशन से सामुदायिक निधि निवेश से 75 हजार का लोन भी मिला. समूह ने इस लोन के साथ सबसे पहले अच्छी नस्ल की गाय और भैंस खरीदी.मालती सहित कुछ ने इस से दूध और मावा बना कर नए धंधे की शुरुआत की. बाक़ी बची महिलाओं ने बंजर पड़ी खेती को तैयार किया.

मीना गजानन,ममता इमने ने बताया कि उनके पति भी हौसला बढ़ाने लगे. उनके बच्चों को अच्छे स्कूल में भर्ती किया. लेकिन पटेलों के यहां मजदूरी छोड़ने के कारण क़र्ज़, ज़बरन वसूली और विवाद होने लगे. इस सबके बावजूद वे घबराई नहीं और बिना किसी की परवाह किए धीरे धीरे पटेलों के क़र्ज़ से मुक्त हो गई. नई बाहर तो तब आई जब ख़ुद की खेती से ट्रैक्टर तक खरीद लिए. एक साल में तीन लाख 84 हजार रुपए कमाए. समूह सदस्यों ने प्रशासन की मदद से रोजगार मेला भी लगया. इसमें सबसे महत्वपूर्ण बात यह रही की 24 युवाओं को नए रोज़गार मिल गए. मालती दीदी और अन्य महिलाएं खुद के दम पर मजदूर से मालकिन बन गई. सच में मानना पड़ेगा-"स्त्री कुछ भी कर सकती है". 

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(Photo Credits: Ravivar vichar)

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