20 मार्च 1927 की सुबह डॉ. भीमराव अंबेडकर और उनके अनुयायियों के लिए ख़ास थी. सदियों से चली आ रही जाति प्रथा की बदरंग निशानी पर चोट करने की तैयारी थी. सामाजिक सशक्तिकरण के प्रणेता बाबासाहेब अंबेडकर अपने पहले सत्याग्रह की राह पर चलने वाले थे. आज के रायगढ़ जिले के महाड गाँव में चवदार नाम का सार्वजनिक तालाब था. इस तालाब के पानी को सारा गाँव इस्तेमाल करता था अपने सभी कामों के लिए यहां तक की गाँव के पशु पक्षी भी. लेकिन भारत की सबसे बड़ी कुरीतियों में से एक जाति प्रथा ने दलितों को यहां का पानी छूने से भी रोक रखा था. इसी को तोड़ने के लिए बाबासाहेब यहां पहुंचे और उनके साथ हज़ारों की संख्या में अछूत कहे जाने वाले लोगों ने चावदार तालाब से पानी पिया. उस समय अंबेडकर ने वहाँ मौजूद लोगों को संबोधित करते हुए कहा था - "क्या हम इसलिए यहाँ आए हैं कि हमें पीने के लिए पानी नहीं मिलता है? क्या हम यहाँ इसलिए आए हैं कि यहाँ के ज़ायक़ेदार कहलाने वाले पानी के हम प्यासे हैं? बिल्कुल नहीं....... हम यहाँ इसलिए आए हैं कि हम इंसान होने का अपना हक़ जता सकें." ये एक प्रतीकात्मक विरोध था जिसके ज़रिए हज़ारों साल पुरानी सवर्ण और सामंती सत्ता को चुनौती दी गई थी जो सामाजिक पायदान के सबसे निचले स्तर के लोगों को वो हक़ भी देने के लिए तैयार नहीं थे जो जानवरों तक को हासिल था. इसकी दूसरी जातियों पर व्यापक प्रतिक्रिया हुई, लोगों ने इसका बदला लिया और दलितों की बस्ती में जाकर ज़बर्दस्त तांडव मचाया. बच्चों, बूढ़ों और महिलाओं को बुरी तरह से पीटा. अंबेडकर के इस विरोध के एक दिन बाद 21 मार्च, 1927 को चावदार तालाब के पानी का 'शुद्धिकरण' किया गया.
भारत इस तरह के सामाजिक भेदभाव की पृष्टभूमि से निकला है और आज बदलाव भले ही है लेकिन सुधार की गुंजाइश लगातार बनी हुई है. वैसे भी ऐतिहासिक रूप से, समुदाय-आधारित विकास कार्यक्रम कहीं न कहीं प्रभावशाली और ताकतवर लोगों के हाथ ही रही. जहां कार्यक्रम से लाभ या तो नेताओं या शक्तिशाली परिवारों को मिलता है. स्वयं सहायता समूह वो आर्थिक क्रांति रही है जिसने इस सामाजिक भेदभाव को कुछ हद तक काम किया है. SHG के आजीविका कार्यक्रमों में कोशिश की जाती है की इस पर कब्जा, किसी एक व्यक्ति विशेष का ना हो जाए. वैसे भी लोन या ऋण संबंधी मुद्दों पर राधाकृष्ण समिति ने अधिकांश राज्यों (विशेष रूप से बिहार और उत्तर प्रदेश) के गांवों में प्रभावशाली व्यक्तियों द्वारा समूहों के कब्जे को गरीबी-उन्मूलन कार्यक्रम की कमियों में से एक के रूप में उजागर किया है.
अपनी स्थापना के बाद से, एनआरएलएम ने समावेशी और सहभागी सामुदायिक संस्थान बनाने के उद्देश्य को आगे रखा. स्वयं सहायता समूह का मिशन स्टेमेंट ही विशेष रूप से अनुसूचित जाति (एससी), अनुसूचित जनजाति (एसटी), और अन्य अल्पसंख्यक समूहों के सदस्यों को शामिल करने का आदेश देता है. इसके अलावा, यह भी आवश्यक है कि कमजोर परिवारों के सदस्यों को स्वयं सहायता समूहों के भीतर पदाधिकारियों के पदों पर प्रतिनिधित्व दिया जाए. इन प्रयासों का एनआरएलएम (कोचर और अन्य 2020) का हालिया मूल्यांकन इस बात का पुख्ता सबूत देता है कि अनुसूचित जाति और जनजाति परिवारों की आय और बचत बढ़ाने के मामले में SHG का बड़ा प्रभाव पड़ा है.
एसएचजी में उसके पदाधिकारी बनने की संभावना पर सदस्यों की सामाजिक-आर्थिक हालातों का असर , विशेष रूप से सदस्यों की जाति का असर बाक़ी सामाजिक संरचनाओं से कुछ कम ही है . अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति के सदस्यों के पास एक ही SHG में अन्य सदस्यों की तुलना में मिश्रित जाति स्वयं सहायता समूह में एक पदाधिकारी की स्थिति रखने की समान संभावना है. हालाँकि, अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति के सदस्यों को स्वयं सहायता समूह का नेता या अध्यक्ष बनने की सम्भावना कुछ काम ही है.
पदों को लेने की संभावना में अंतर के अलावा, विभिन्न जाति समूहों के सदस्यों द्वारा प्राप्त भागीदारी और लाभ में जाति-आधारित अंतरों को अगर देखें तो भी यह SHG को मिलने वाली धनराशि और ऋण की राशि के मामले में बहुत कम हैं. साथ ही उत्साहजनक तौर पर अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति के सदस्य समूहों में जहां उनकी जाती के सदस्य पदाधिकारी पदों पर हैं, वह ज़्यादा बैठकों में भाग लेते हैं, एसएचजी के साथ अधिक बचत करते हैं और बड़ी ऋण राशि लेते हैं. एनआरएलएम , स्वयं सहायता समूह के प्रमुख पदों पर वंचित जातियों के प्रतिनिधित्व को देने में काफी सफल रहा है. और ऐसा होने से SHG में अनुसूचित जाति और जनजाति सशक्तिकरण के लिए महत्वपूर्ण कदम है. सशक्तिकरण के संबंध में, ये पदाधिकारी रोल मॉडल के रूप में उभर सकते हैं और समूह में अन्य सदस्यों को सशक्त बना सकते हैं.
स्वयं सहायता समूह वो कड़ी बन सकते है जो बाबासाहेब अंबेडकर के सपने को साकार कर सके. उन्होंने हमेशा ही नारी की आज़ादी और जातिविहीन समाज की कल्पना की. स्वयं सहायता समूह इन दोनों परिकल्पनाओं को पूरा करने में सहायक होगा. और हमें भविष्य में यह सुनने को नहीं मिलेगा की जो जाती नहीं है वो ही जाति होती है.
जातिवाद के ज़हर पर SHG का अमृत
स्वयं सहायता समूह वो कड़ी बन सकते है जो बाबासाहेब आंबेडकर के सपने को साकार कर सके. उन्होंने हमेशा ही नारी की आज़ादी और जातिविहीन समाज की कल्पना की. स्वयं सहायता समूह इन दोनों परिकल्पनाओं को पूरा करने में सहायक होगा.
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