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Breaking Barriers : Apoorva Arthur becomes the first female Mizhavu student at Kerala Kalamandalam
मिज़ावु : भारत की दुर्लभ कला और उसका महत्व
मिज़ावु भारत की एक बहुत ही दुर्लभ और प्राचीन कला है, जिसके बारे में कम ही लोग जानते हैं. यह बड़ा बाजा का ढोलक (तांबे का ढोल) है, जिसकी जगह केवल हाथों से लिया जाता है. यह केरल की शास्त्रीय और मंदिर कलाओं (मंदिर कला) का अहम हिस्सा है,
कूडियाट्टम (कूडियाट्टम - संस्कृत नाटक और चक्यार कुथु (चाक्यार कूथु - पारंपरिक कथावाचन) में मिज़ावु की थाप कलाकार के अभिनय और भावनाओं को और गहराई से मिलती है.
मिझावु सिर्फ एक वाद्ययंत्र नहीं है, बल्कि केरल की सांस्कृतिक विरासत (केरल की सांस्कृतिक विरासत) है, जिसके हर ताल जीवन और कला की आत्मा को महसूस किया जाता है.
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पुरुषों के लिए आरक्षित कला की परंपरा को तोड़ना
मिज़ावु की कला केरल में सदियों से अद्भुत और प्रसिद्ध रही है. यह बड़ा तांबे का वाद्ययंत्र सिर्फ ताल देने का साधन नहीं है, बल्कि कूटियाट्टम और चाक्यार कूथु जैसी प्राचीन नाट्यकला रूपों की आत्मा माना जाता है.
इतिहास में मिज़ावु केवल पुरुषों द्वारा ही बजाया जाता था, खासकर अंबालावासी नंबियार समुदाय के लोग. महिलाओं को इसे बजाने की अनुमति नहीं थी क्योंकि इसे ब्रह्मचारी वाद्ययंत्र माना जाता था और इसका पवित्र धार्मिक दर्जा था.
समय के साथ बदलाव आया, अपूर्वा आर्थर ने इस रूढ़िवादी परंपरा को तोड़ा और मिज़ावु सीखकर यह साबित किया कि कला का कोई लिंग नहीं होता.
"कला का असली आधार मेहनत, सीखने की इच्छा और सम्मान है, न कि स्त्री या पुरुष होना."
आज मिज़ावु केवल पारंपरिक वाद्ययंत्र नहीं, बल्कि समानता और बदलाव की पहचान भी बन गया है.
अपूर्वा की कला क्षेत्र में यात्रा और प्रशिक्षण
अपूर्वा की कला यात्रा की शुरुआत 2011 में अदीशक्ति थिएटर आर्ट्स से हुई, जहाँ उन्होंने नाट्यकला, कला शिक्षा और कलारी में प्रशिक्षण लिया. इस दौरान उन्हें वरिष्ठ गुरुओं का मार्गदर्शन और आशीर्वाद भी मिला, जिनमें कलामंडलम के अच्युतानंदन, जिष्णु प्रसाद, रथीश भास और सजीथ विजय शामिल हैं. अपनी कला यात्रा में अपूर्वा ने खासतौर पर कलारी और नाट्यकला पर ध्यान दिया. उन्होंने वीणापानी चौला से कलारी सीखी और गुरुओं से सीखते हुए अपनी कला को और निखारा.
महत्व और सामाजिक संदेश
अपूर्वा का कदम सिर्फ व्यक्तिगत उपलब्धि नहीं है. यह एक सांस्कृतिक परिवर्तन और समाज में महिलाओं की भागीदारी का प्रतीक है. उनकी पहल दिखाती है कि कला में लिंग की कोई सीमा नहीं होती. आने वाली पीढ़ी की महिलाएं अब पारंपरिक मिज़ावु और अन्य मंदिर कला में भी भाग ले सकती हैं.