भारत की सांस्कृतिक विरासत और कला की विविधता हमें विश्व मंच पर एक अनूठा स्थान देती है. यहां की कला सिर्फ रंगों और आकृतियों का खेल नहीं है, बल्कि यह हमारी संस्कृति, इतिहास और जीवन की गहराई की भी झलक प्रस्तुत करती है. भारतीय कला (Indian Art) में मूर्तिकला, चित्रकला, वास्तुकला और लोक कला जैसे कई रूप शामिल हैं, जो समय के साथ खुद को ढाल रहे हैं.
भारतीय कला का सबसे महत्वपूर्ण पहलू इसकी गहनता और आत्मा को छू लेने वाला सौंदर्य है. मधुबनी चित्रकला से लेकर राजस्थानी मिनिएचर पेंटिंग्स, हर एक में भावनाओं की गहराई और संस्कृति की झलक मिलती है.
इन्हीं कलाओं में से एक है पश्चिम बंगाल (West Bengal) की प्रमुख पटचित्र कला (Patchitra Art). इस कला के माध्यम से, कलाकार कपड़े या हाथ से बने कागज़ पर विभिन्न धार्मिक और सामाजिक कहानियों, मिथकों और पौराणिक कथाओं को चित्रित करते हैं और गीतों के ज़रिए उन्हें लोगों तक पहुंचाते हैं. इसी कला को आज पारंपरिक रूप से लोगों तक पहुंचा रही है सोनाली चित्रकार.
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बचपन से मां से सीखती आई है कला
सोनाली चित्रकार (Sonali Chitrakar), पश्चिम बंगाल की एक उल्लेखनीय पटचित्र कलाकार (Patua Artist) हैं, जिनका काम उनकी समुदाय की विरासत और परंपरा को जीवित रखने में एक महत्वपूर्ण योगदान देता है. पटचित्र और पाटुआ समुदाय के कलाकारों की पीढ़ियों ने इस परंपरागत कला शैली को अपनाया है, जिसमें चित्रकला और उसके पीछे की कहानी सुनाने को एक साथ पिरोया जाता है.
सोनाली बताती हैं कि बचपन से ही वह अपनी मां से प्रेरित होती आई हैं. उनकी मां भी एक पटुआ कलाकार थी. वह जब भी अपनी पेंटिंग्स बेचने जाती थी, अक्सर सोनाली को अपने साथ ले जाया करती थी. सोनाली उनके चित्रों और गीतों को सुनकर उनमें खो सी जाती थी. जीवन में आगे चलकर सोनाली ने अपनी मां की विरासत को बढ़ाते हुए उनकी कला को अपनाया और एक बेहतरीन पाटुआ कलाकार के रूप में उभरी.
सोनाली अपने विशिष्ट और रंगीन पटचित्रों के माध्यम से धार्मिक कथाओं, सामाजिक मुद्दों, और लोककथाओं को दर्शाने में माहिर हैं. उनके काम में पारंपरिक डिज़ाइन्स और समकालीन संवेदनशीलता का संगम देखा जा सकता है, जो उन्हें उनके समुदाय में एक अनूठी पहचान प्रदान करता है. सोनाली ने अपने काम के माध्यम से पटचित्र कला के प्रति लोगों को जागरूक तो किया ही है, साथ ही उन्होंने इस कला रूप को अंतरराष्ट्रीय मंच पर भी पहचान दिलाई है.
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पटचित्र, पाटेर गान और पाटुआ...
पटचित्र कला भारत की एक प्राचीन और पारंपरिक चित्रकला शैली है, जो मुख्य रूप से पश्चिम बंगाल और ओडिशा में प्रचलित है. 'पट' का मतलब होता है 'कपड़ा' और 'चित्र' का मतलब होता है 'तस्वीर'. पटचित्र कला में रंगों का उपयोग बहुत ही विशेष और पारंपरिक होता है. इसमें प्रयोग किए जाने वाले रंग पूरी तरह से प्राकृतिक होते हैं, जिन्हें विभिन्न पेड़ों की छाल, फूलों, पत्तियों और मिट्टी से प्राप्त किया जाता है.
यह कला ना केवल अपनी आकृतियों और रंगों के लिए जानी जाती है, बल्कि इसकी कहानी कहने के तरीके के लिए भी प्रसिद्ध है. पटचित्र कलाकार, जिन्हें 'पाटुआ' कहा जाता है, अक्सर अपनी पेंटिंग्स को दिखाते समय उनसे जुड़ी कहानियां भी सुनाते हैं, जिसे 'पाटेर गान' कहा जाता है.
पाटेर गान है पाटुआ की ख़ासियत
पाटुआ विशेष रूप से पश्चिम बंगाल और ओडिशा के क्षेत्रों में, एक पारंपरिक कलाकार या चित्रकार समुदाय को कहते है. ये कलाकार पटचित्र कला के माहिर होते हैं. पाटुआ कलाकारों की ख़ासियत यही है कि वे केवल चित्रकारी ही नहीं करते, बल्कि 'पाटेर गान' भी प्रस्तुत करते हैं, जो कि उनके द्वारा बनाई गई चित्रकारी की कहानियों को गीतों के रूप में गाना है.
यह अनोखी विशेषता उन्हें साधारण कलाकारों से अलग करती है. पाटुआ समुदाय के लोग अक्सर अपनी चित्रकारी को स्क्रॉल के रूप में पेश करते हैं और इन्हें लेकर गांव-गांव घूमते हैं, जहां वे इन्हें खोलते हुए और गाते हुए लोगों को कथाओं और महत्वपूर्ण संदेशों से परिचित कराते हैं.
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पाटुआ समुदाय का काम आज भी उनके अद्वितीय शिल्प कौशल और सांस्कृतिक संवाद को बनाए रखने में महत्वपूर्ण है. इस कला के माध्यम से, वे पारंपरिक कहानियों और समकालीन मुद्दों, दोनों को समाज के सामने लाते हैं, जिससे इस प्राचीन कला शैली को नई पीढ़ियों तक पहुंचाने में मदद मिलती है.
इस कला का असर इतना गहरा है कि यह न केवल भारतीयों को अपनी जड़ों से जोड़ती है, बल्कि विश्वभर में भारत की पहचान को भी मजबूती प्रदान करती है. आज, भारतीय कला की वैश्विक पहचान और महत्व ने इसे अंतरराष्ट्रीय कला संग्रहालयों और प्रदर्शनियों में एक विशेष स्थान दिलाया है. भारतीय कला ना सिर्फ एक अभिव्यक्ति है बल्कि एक विरासत है जिसे सहेजना और संवारना हम सभी का कर्तव्य है.