चुनावी बिगुल कब का बज चुका है. माहौल पूरी तरह से चुनावी रंग में रंग चुका है. लोकसभा चुनाव (LokSabha Elections 2024) हैं फ़िर भी भारत जैसे विनिन्नताओं से परिपूर्ण देश में हर राज्य, हर शहर और हर गांव-कस्बे का माहौल एक दूसरे से अलग होता है.
महिलाएं चुकाते है कीमत
लेकिन आज हम चुनावों के रोमांचक पहलुओं के बारे में बात नहीं करेंगे. आज हम बात करेंगे चुनावों के वीभत्सपने की. और कैसे निर्दोष लोगों को इस महायुद्ध की कीमत चुकानी पड़ती है. सत्ता की इस लड़ाई में सबसे ज़्यादा नुकसान होता है देश की महिलाओं का.
कहीं पर कम, कहीं पर ज़्यादा, पर होता ज़रूर है. 2021 के बंगाल के विधानसभा चुनाव के बाद हिंसा, यौन शौषण और हत्या के जो मामले सामने आए थे वो अब तक सबके जहन में होंगे. बात वैसे सिर्फ़ बंगाल की नहीं हैं. लेकिन क्योंकि बंगाल की घटनाएं हाल ही की हैं और वहां पर चुनावी हिंसा जिस तरह से आम बात सी है, इसलिए चुनावी हिंसा की बात करते वक्त सबसे पहले बंगाल का नाम सामने आता है.
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बंगाल हिंसा में सबसे आगे
विधानसभा चुनावों के नतीजे के बाद जो बंगाल में हुआ, उसी के वापस होने की आशंका जताई जा रही है. लेकिन अगर बंगाल के वोटरों की माने तो सिर्फ़ आशंका नहीं, उन्हे पूरा भरोसा है कि जिस भी इलाके में वो रहते हैं, वहां जिस पार्टी का दबदबा है, अगर उसे वोट नही दिया तो उन्हे इसका अंजाम भुगतना होगा. क्या भाजपा, क्या तृणमूल और क्या वामपंथी. बंगाल के लोगों का कहना है कि पार्टियों के सिर्फ़ नाम अलग हैं, तरीका नहीं.
बंगाल के लोगों को पहले वामपंथ के चुनावी बाहुबल का सामना करना पड़ता था. अब क्योंकि पूरी लड़ाई तृणमूल और भाजपा के बीच की है और लोगों को इन दोनो पार्टियों के बाहुबल का सामना करना पड़ता है. चुनावी हिंसा का डर सिर्फ़ वोटरों को ही नहीं होता. ये डर राजनीतिक कार्यकर्ताओं को भी होता है.
एक बार जब चुनाव के नतीजे आ जाए तब उन लोगों के खिलाफ़ दमन की प्रक्रिया शुरू होती है जिन्हे कोई भी पार्टी उनके राजनीतिक नुकसान के लिए ज़िम्मेदार मानती है. और इन सबमें सबसे बड़ी भुगतभोगी होती हैं महिलाएं.
चाहे महिला कार्यकर्ता (Female Karyakarta) हों या महिला वोटर (Female Voters), उन्हे राजनीतिक दलों की हिंसा को झेलना पड़ता है. पिछले विधानसभा चुनाव में जो हुआ वो हम सबके सामने है ही. आपको शायद लगे कि ये चुनावी हिंसा बंगाल के दूर दराज के इलाकों में होती होगी. पर ऐसा नहीं है.
कोलकाता से महज तीस किलोमीटर दूर के गांवों में अगर आप जाकर देखेंगे तो यही हालात हैं. वहां की महिलाएं आपको बताएंगी कि किस तरह से चुनावी दमन का सबसे ज़्यादा शिकार वो होती हैं. जिस तरह से वो इन सबके बारे में बताती हैं, ये देख कर सबसे ज़्यादा दुख होता है कि किस तरह से इसे उन्होंने अपनी नियति मान लिया है.
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और भी जगह हाल सामान
बंगाल अकेली ऐसी जगह नही है. 1970-90 के दशक में भारत के उत्तर पूर्वी राज्यों में चुनावी हिंसा की घटनाएं आम बात हो गई थीं. 1990 से 2004 के बीच में बिहार में चुनावी हिंसा अपने चरम पर थी. उत्तर प्रदेश में भी स्थिति कुछ अलग नहीं थी. लोकसभा (Lok Sabha), विधानसभा (Vidhan Sabha) की तो बात ही क्या, ग्राम पंचायत के चुनाव भी हिंसक घटनाओं से पटे होते थे. और बंगाल की ही तरह बाकी सभी राज्यों में भी सबसे ज्यादा अत्याचार महिलाओं पर ही हुआ है. वर्तमान में स्थिति में काफ़ी बदलाव आया है ये सच है, लेकिन अब भी ऐसे राज्य हैं जहां पर चुनाव अपने साथ राजनीतिक दमन लेकर आते हैं और आधी आबादी को अपने ज़ुल्म के का शिकार बनाते हैं.
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