झाबुआ की गुड़िया ने महिलाओं को बनाया मालामाल
मध्य प्रदेश (MP) के जिस झाबुआ (Jhabua) जिले को आदिवासी (Tribal) पिछड़े जिले में माना जाता था, आज वहीं की संस्कृति विदेशों तक अपनी छाप छोड़ रही. बात यहीं ख़त्म नहीं होती. अब यहां खासकर महिलाएं इस आदिवासी संस्कृति को बचाने में जुटीं है. इन महिलाओं ने झाबुआ की गुड़िया (Jhabua Ki Gudiya) बनाकर जहां कल्चर को बचाया वहीं रोजगार का जरिया बना लिया. अच्छी कमाई से ये मालामाल हो गईं. किसी समय गुमनाम यह कला अब पद्मश्री (Padmshree)की दहलीज़ तक जगह बना चुकी है.झाबुआ (Jhabua) जिले में स्वयं सहायता समूह (Self Help Group) ने भी इस कारोबार को अपनाया. आज झाबुआ की 'गुड़िया' बड़े-बड़े घरानों, जनप्रतिनिधियों के घरों में उपहार के तौर पर सजी दिख जाएंगी.
डेढ़ हजार महिलाओं को किया ट्रेन
बरसों पुरानी इस कला को अब नए सिरे से पहचान मिलने लगी. यही वजह रही कि झाबुआ के दंपति रमेश परमार और शांति परमार को इस कला के लिए पद्मश्री से राष्ट्रपति (President) द्रोपदी मुर्मू (Dropadi Murmu) ने सम्मानित किया. शांति परमार कहती हैं- "मैंने लगभग 30 साल पहले गुड़िया बनाने की ट्रेनिंग ली. इसके बाद से ही मैंने आसपास के गांव तक महिलाओं को यह गुड़िया बना सिखाया. अब स्कूल की छात्राएं तक सीखने आ रहीं. मेरे पति ने बहुत हौसला बढ़ाया. हमें ख़ुशी है कि इस कला को पद्मश्री मिला." जिला प्रशासन ने भी आजीविका मिशन (Ajeevika Mission) के सहयोग से स्वयं सहायता समूह (Self Help Group) को जोड़ा. शहरी आजीविका मिशन (Ajeevika Mission) की महाकालेश्वर समूह (SHG) की सोनू परमार बताती है- "मुझे ख़ुशी है कि झाबुआ की गुड़िया जैसे कारोबार से जुड़ी. हम महिलाएं मिलकर ये गुड़िया बनाते हैं. हमारी कमाई अच्छी हो जाती."
पद्मश्री शांति परमार अपनी साथियों के साथ गुड़िया बनाते हुए (Image Credit: Ravivar Vichar)
तीन पीढ़ियां सहेज रही ट्रेडिशनल आर्ट
झाबुआ (Jhabua) में इस ट्रेडिशनल आर्ट (Traditional Art) को सहेजने के लिए कई संस्थाएं भी जुटीं हुई है. गुड़िया घर के संचालक सुभाष गिदवानी बताते हैं- "हमारी तीसरी पीढ़ी भी इस ट्रेडशनल आर्ट को सहेजने में जुटी हुई है.हमने अधिकांश महिलाओं को रोजगार दिया. इसमें कुछ दिव्यांग महिलाएं भी शामिल हैं. मुझे ख़ुशी है कि हमारे हाथों से बानी गुड़िया को कई बड़े-बड़े शहरों के एम्पोरियम में सजाया गया.ये गुड़िया एक फीट से लगाकर 12 फीट हम बना चुके हैं."
आर्टिस्ट मुक्ता परमार दिव्यांग है. मुक्ता कहती हैं- "मुझे इस कारखाने में लगभग 20 साल हो गए. अच्छा लगता है कि हम आदिवासी इस कला और आर्ट को बचाने का काम कर रहे.कमाई के अलावा हमें यह काम करने में अच्छा लगता है." आर्टिस्ट मोहिनी गिदवानी तैयार गुड़िया को पेंट कर सजा देती हैं.
गुड़िया घर में काम करती हुई महिलाएं (Image Credit: Ravivar Vichar)
ट्रेडिशनल ड्रेस और तीर-कमान ही पहचान
प्रदेश के झाबुआ आज भी आदिवासी संस्कृति (Tribal Culture) में रचा बसा है. यहां के कुछ कलाकारों ने इसे कई पीढ़ियों से सहेजा. लेकिन मार्केटिंग और संसाधनों कि कमी के कारण यहां बनने वाली गुड़िया कुछ क्षेत्र ही सीमित थी. वक़्त के साथ यह आकर्षण का केंद्र बनी. आदिवासी संस्कृति (Tribal Culture) में मूल पहनावा सीधी धोती लपेटना, बंडी (एक तरह की बनियान जिसमें जेब हो), सर पर गोल अंदाज़ की पगड़ी होती है. कंधे पर तीर- कामठी (कमान) आदवासी सुरक्षा और बहादुरी की पहचान मानी जाती है. महिलाओं के ख़ास लिबास में लुगड़ा और चांदी के जेवर उन्हें और खूबसूरत बना देते हैं. झाबुआ की गुड़िया को यही आकर दिया जाता है. पद्मश्री रमेश परमार बताते हैं- "इसे बनाने में रुई कपड़ा, तार और फेस को जीवंत बनाने के लिए कलर पेंट का उपयोग होता है. ढाई सौ रुपए से लगाकर इसकी कीमत हज़ारों में होती है."
गुड़िया को और देंगे बढ़ावा
'झाबुआ की गुड़िया' को लेकर शासन-प्रशासन कई योजनाओं से जोड़ रहा. झाबुआ (Jhabua) कलेक्टर (DM) तन्वी हुड्डा (Tanvi Hudda) कहती हैं- " झाबुआ की गुड़िया' को कलाकारों ने नया मुकाम दिया. इसे बनाने में कई महिलाओं को रोजगार मिला और आत्मनिर्भर हो गईं. अब बड़े-बड़े शहरों तक मार्केटिंग की जा रही. हम इस गुड़िया को और बढ़ावा देंगे. यह आदिवासी संस्कृति हमारे देश की विरसत है. आर्टिस्ट लोगों को हर तरह से प्रोत्साहित किया जा रहा."
झाबुआ कलेक्टर तन्वी हुड्डा (Image Credit: Ravivar Vichar)