विश्वनाथन आनंद को शतरंज की पहली चाल सिखाने वाली .... सुशीला

सुशीला शतरंज खेलने वाले वकीलों के परिवार से थीं. उन्हें शतरंज खेलना काफी पसंद था. आनंद को 6 साल की उम्र में ही उन्होंने शतरंज की चालें सिखाना शुरू किया.

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हेमा वाजपेयी
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anand viswanathan

Image Credits : Ravivar Vichar

शतरंज (Chess) की दुनिया में, विश्वनाथन आनंद  (Viswanathan Anand) का नाम विश्व में महान ग्रंड्मास्टरों (Chess Grandmasters) में आता  है. लेकिन हर सफल व्यक्ति के पीछे किसी न किसी का साथ होता है और ऐसा ही उदाहरण आनंद के जीवन में भी रहा. आनंद आज जो कुछ भी है, वो अपनी मां, सुशीला विश्वनाथन (Sushila Viswanathan) के निरंतर सपोर्ट की वजह से हैं. सुशीला विश्वनाथन ने अपने दृढ़ समर्थन और संघर्ष के साथ अपने बेटे आनंद को एक महान व्यक्तित्व बनाने में महत्वपूर्ण योगदान दिया.

आनंद को 6 साल की उम्र में शतरंज की चालें सिखाना  किया शुरू

सुशीला शतरंज खेलने वाले वकीलों के परिवार से थीं. उन्हें शतरंज खेलना काफी पसंद था. आनंद को 6 साल की उम्र में ही उन्होंने शतरंज की चालें सिखाना शुरू किया. यही कारण है कि, चेन्नई (Chennai) के लोयला कॉलेज से कॉमर्स (Loyola College, Chennai) में पढ़ाई करने के बाद भी, आनंद ने शतरंज की राह चुनी. उस दौर में, खेल में करियर बनाना सुरक्षित नहीं माना जाता था और खेल में लोग सिर्फ क्रिकेट (Cricket) को ही पसंद किया करते थे, लेकिन आनंद का शतरंज के प्रति लगाव होने के कारण, उन्होंने रिस्क लिया और आज हमारे सामने इतिहास गवाह है. 

1983 में सुशीला, आनंद के साथ, अलग-अलग कॉम्पीटीशन में जाती थीं, जहां उन्हें ऐसी जगहों में रुकना पड़ता था, जिसकी आज हम कल्पना भी नहीं कर सकते. देखा जाये तो आनंद की बदौलत ही, आज शतरंज खेल की रूपरेखा इतनी बदल गई हैं. 

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Image Credits : Ravivar Vichar

सुशीला ने आनंद के सफल करियर का  श्रेय खुद कभी नहीं लिया. जब आनंद ने तेहरान (Tehran) 2000 में पहली बार विश्व ख़िताब (World Title) जीता, तब सुशीला ने बताया कि, उन्होंने सिर्फ आनंद की प्रतिभा को सही समय पर पहचाना और आनंद की जीत उनके लिए कोई आश्चर्य की बात नहीं, क्यंकि उन्हें यकीन था कि, एक दिन आनंद विश्व खिताब जीतेगा. 

सुशीला माता-पिता की प्रेरणा के लिए आदर्श उदाहरण थीं. बात है अगस्त 1994 सांघीनागर (Sanghi Nagar) मैच की, जब आनंद गाटा कामस्की (Gata Kamsky) से हारने के बाद, सुशीला उनको लेने चेन्नई एयरपोर्ट (Chennai Airport) गई थीं. तभी उन्होंने सुनिश्चित किया कि, अगले मैच में वह आनंद के साथ जायेंगी. मार्च 1994 में जब आनंद को लास पालमास (Las Palmas), स्पेन (Spain) में कामस्की के खिलाफ एक और मैच खेलने का मौका मिला, तब सुशीला उनके साथ गई और खेल का परिणाम भी इस बार उलट था. आनंद ने एक गेम से पिछड़ने के बाद वापसी करते हुए, यह मैच जीता और पहली बार विश्व चैंपियनशिप (World Championship) के चैलेंजर बनकर उभरे. 

सुशीला के निधन से शतरंज ने भारतीय शतरंज का सबसे बड़ा प्रेरक खो दिया. उनके त्याग, धैर्य और निष्ठा ने आनंद को वहां पहुंचाया है, जहां वह आज है. सुशीला के समर्पित, समर्थ और संघर्षशील व्यक्तित्व की वजह से ही आनंद ने भारत का नाम विश्व में रौशन किया है. सुशीला अन्य महिलाओं के लिए मिशाल है. महिलाओं की ज़िन्दगी उनकी इच्छाशक्ति और समर्पण से भरी हुई होती है. वह अपने परिवार या बच्चों को सपोर्ट कर, उन्हें नई उचाईयों की ओर बढ़ने के लिए हमेशा प्रेरित करती हैं. 

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