भारतीय सिनेमा (Indian cinema) को कई बेहतरीन फिल्मों की सौगात देने वाले मशहूर फिल्म निर्देशक सत्यजीत रे (Satyajit Ray) का नाम देश के महान निर्देशकों की सूची में सबसे पहले आता है. सफल निर्देशक होने के साथ वह एक महान लेखक, कलाकार, चित्रकार, फिल्म निर्माता, गीतकार और कॉस्ट्यूम डिजाइनर भी थे. उन्होंने फिल्म जगत को पाथेर पांचाली, अपराजितो, अपूरसंसार और चारूलता जैसी कई यादगार फिल्में दी हैं. उनके द्वारा बनाई गई 37 फिल्मों ने दुनियाभर में उन्हें फेमस कर दिया.
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सत्यजीत रे की फिल्में सरल लेकिन शक्तिशाली हैं. रीजनल फिल्म होने के बावजूद, इन फिल्मों की अपील सरहद और भाषा के सारे बंधनों को तोड़ती थी. उनकी फिल्मों में चित्रित ग्रामीण या शहरी महिलाओं के किरदार विस्तृत होते, उनमे असीम क्षमताएं होती, और उनके व्यक्तित्व के कई पहलु होते. सत्यजीत रे ने फिल्मों में महिलाओं को कुछ इस तरह दर्शाया कि स्क्रीन पर वे कभी पुरुषों की तुलना में कमतर नहीं लगती, और न ही पुरुषों से अपनी जगह बनाने के लिए लड़ती दिखाई देतीं.
वैसे तो उनकी सारी ही फ़िल्में बेहतरीन है, लेकिन इन सात फिल्मों की बात कुछ और है. इन फिल्मों के किरदार मेनस्ट्रीम सिनेमा के 'मेल गेज़' से दूर नज़र आते हैं. वाकई में, इन फिल्मों की महिलाएं सिनेमा वाली ट्रेडिशनल 'हीरोइन' के दायरे में नहीं आ सकती.
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महानगर (द बिग सिटी – 1963)
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जया बच्चन की डेब्यू फिल्म नरेंद्रनाथ मित्रा की एक लघु कहानी पर आधारित है. इस फिल्म में बंगाली परिवार से आई मिडिल क्लास महिला की नौकरी की शुरुआत को दर्शाया गया है. ये फिल्म शहरी जीवन में सामाजिक-आर्थिक बदलावों का चित्रण है, जिसे आरती के ज़रिये दिखाया गया है. वे अपने बड़े परिवार के खर्चों को बांटने के लिए गृहिणी से कामकाजी पत्नी बन जाती है. ससुराल वाले और पति इस कल्चरल शॉक से उभरने के लिए संघर्ष करते नज़र आते हैं. काम और निजी ज़िंदगी में तालमेल लाने के संघर्ष को दिखाया है.
देवी (देवी – 1960)
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प्रोवत कुमार मुखोपाध्याय की एक लघु कहानी पर आधारित यह फिल्म 19वीं सदी के ग्रामीण बंगाल पर आधारित है. देवी भारतीय समाज में महिलाओं के उत्पीड़न को दिखाती है. ये 17 साल की लड़की की कहानी है जिसे देवी काली का अवतार माना जाता है. उसे पूजा जाता है, लेकिन जल्द ही ये सब उसे बोझ लगने लगता है. शर्मिला टैगोर का किरदार अंधविश्वास और शोषण को दिखाता है.
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तीन कन्या (तीन लड़कियां – 1961)
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रवींद्रनाथ टैगोर की कहानियों पर आधारित तीन शॉर्ट फिल्मों का एक सेट है. तीन अलग-अलग किशोरी महिला नायकों के अन्तरद्वन्द्व को दर्शाया गया है. पहली शॉर्ट फिल्म पोस्टमास्टर युवा अनाथ लड़की, रतन (चंदना बनर्जी) के बारे में है, जो गांव के पोस्टमास्टर के घर में नौकरानी के रूप में काम करती है, जो उसे पढ़ना-लिखना सिखाता है. दूसरी कहानी मोनिहारा (द लॉस्ट ज्वेल्स) है, जो एक ऊबी हुई विवाहित महिला, मणिमालिका (कनिका मजूमदार) के बारे में एक मनोवैज्ञानिक थ्रिलर है. वे एक बड़ी हवेली में अकेली रहती है. तीसरी फिल्म समाप्ति (द कन्क्लूजन), एक लापरवाह लड़की, मृणमयी (अपर्णा सेन) की कहानी है, जो झूलों पर समय बिताती है और गिलहरी का पीछा करती है. फिल्म में उसका विद्रोही किशोरी से प्यार में पड़ी महिला के रूप में परिवर्तन दिखाया गया है.
चारुलता (द लोनली वाइफ – 1964)
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बंगाली लेखक रवींद्रनाथ टैगोर के उपन्यास नस्तानिरह (द ब्रोकन नेस्ट) पर आधारित, यह फिल्म एक अकेली गृहिणी के बारे में है. वो एक ऐश-ओ-आराम की ज़िंदगी जीती है, पर हद से ज़्यादा कामकाजी पति से नज़रअंदाज़ होने का दुःख उसे परेशान करता रहता है. युवा चचेरे भाई का आना उसकी ज़िंदगी में महत्वाकांक्षाओं को जगा देता है. फिल्म चारुलता की उलझनों, असंतुष्ट शादी, और रिश्तों में टकराव की भावनाओं को दिखाती है.
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घारे-बैरे (द होम एंड द वर्ल्ड – 1984)
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घारे-बैरे को रवींद्रनाथ टैगोर के उपन्यास से उसी शीर्षक के साथ रूपांतरित किया गया है, जिसे स्वदेशी आंदोलन की पृष्ठभूमि में फिल्माया गया है. राष्ट्रवाद के विषयों और महिलाओं की भूमिका को दिखाया गया है. फिल्म की नायिका, स्वातिलेखा सेनगुप्ता द्वारा अभिनीत, बिमला अपने पति के प्रति वफादारी और एक क्रांतिकारी नेता के प्रति अपने प्रेम को लेकर असमंझस में नज़र आती है. फिल्म में बिमला का किरदार, स्वतंत्रता संघर्ष में महिलाओं के चुनौतियों और पुरुषों के साथ उनके जटिल संबंधों पर प्रकाश डालता है.
पाथेर पांचाली (सांग ऑफ़ द लिटिल रोड - 1955)
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यह फिल्म सत्यजीत रे के निर्देशन में बनी पहली फिल्म है जो विभूतिभूषण बंद्योपाध्याय के एक बंगाली उपन्यास पर आधारित है. यह अपू और उसकी बड़ी बहन दुर्गा के बचपन के इर्द-गिर्द घूमती है. महिला पात्रों को काफी सावधानी से दिखाया गया है. बड़ी बहन, दुर्गा (उमा दासगुप्ता) को देखभाल करने वाली और प्रकृति से प्रेम करने वाली जिज्ञासु लड़की बताया गया है. मां, सरबोजया (करुणा बनर्जी) को पहली दो फिल्मों में गरीबी से जूझ रहे ग्रामीण जीवन में अपनी गरिमा बनाये रखते हुए दिखाया गया है. पत्नी, अपर्णा (शर्मिला टैगोर), अपू के जीवन में खुशहाली लाती है और अपने पति के सिगरेट के पैकेट पर धूम्रपान काम करने का संदेश लिखती हुई दिखाई देती है.
अरण्येर दिन रात्रि (डेज़ एंड नाइट्स इन द फ़ॉरेस्ट - 1969)
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सुनील गंगोपाध्याय के एक बंगाली उपन्यास पर आधारित,अरण्येर दिन रात्रि में दोस्तों के शहर छोड़ वन आने के बाद बदलती परिस्थितियों को दर्शाया गया है. अपर्णा बुद्धिमान, संतुलित और ईर्ष्यालु स्वभाव की है, जो अपनी सेक्शुअलिटी के साथ प्रयोग करने से पीछे नहीं हटती. उनके किरदार को दूसरे पारंपरिक महिला किरदारों से ज़्यादा मज़बूत और प्रभावशाली बताया गया है.
रे की फिल्में अपने समय से काफी आगे होती थीं. रे की फिल्मों ने 'आदर्श' भारतीय महिला की धारणा को चुनौती दी, जिन से विनम्र,आज्ञाकारी और आत्म-बलिदानी होने की उम्मीद की जाती थी. उनके महिला किरदार सफल, स्वतंत्र, और प्रभावशाली होते थे, जो अपने मन की बात कहने से नहीं डरते. सत्यजीत रे की फिल्मों में महिलाओं का चित्रण क्रांतिकारी था जिसका भारतीय सिनेमा पर गहरा प्रभाव पड़ा. भारतीय सिनेमा में रे का योगदान बहुत बड़ा था. रे की फ़िल्में, फिल्म निर्देशकों को उनके काम में लैंगिक भूमिकाओं और सामाजिक मुद्दों की जटिलताओं को सामने लाने के लिए प्रेरित करती रहेंगी.