/ravivar-vichar/media/media_files/2025/06/16/ZYvnMNt8cUx070jsG8N7.png)
Image Credits: Ravivar Vichar
हर साल जैसे ही भारत में तापमान 45 डिग्री के पार पहुंचता है, हर साल हीटवेव को लेकर स्वास्थ्य चेतावनियाँ जारी हो जाती हैं, सरकारी आंकड़े दिखाए जाते हैं, और शहरों के कूलर-बेसमेंट वाले घरों में भी पसीने से बुरे हाल हो जाते है. लेकिन इस सबके बीच एक आवाज़ दब जाती है- उस महिला की जो झुग्गी में बैठकर जलते टिन की छत के नीचे खाना बना रही है, जो गर्भ में बच्चा लिए खेत में काम कर रही है, या जो पूरे दिन पसीने से भीगकर बच्चों की देखभाल कर रही है.
हीटवेव सबको नहीं मारती — यह सबसे पहले और सबसे ज़्यादा औरतों को झुलसाती है. लेकिन इस सच्चाई पर न तो बहस होती है, न नीति बनती है और न ही न्यूज़ की हेडलाइन मिलती है. देखा जाए तो कहा जा सकता है की हीटवेव और महिलाएं, इनका कुछ ऐसा सम्बन्ध है जिसके बारे में बात करना शायद अब बहुत ज़रूरी हो गया है.
इस लेख में हम जानेंगे कि हीटवेव महिलाओं को कैसे और क्यों ज़्यादा प्रभावित करती है — शरीर से लेकर सामाजिक भूमिकाओं तक, और नीतियों की चुप्पी से लेकर आँकड़ों की सच्चाई तक. क्योंकि जब जलवायु संकट आता है, तो उसका सबसे पहला वार उसी पर होता है, जो पहले से ही सबसे कमज़ोर है.
Heatwave सिर्फ तापमान नहीं, एक सामाजिक अन्याय भी है
जून 2024 में भारत के कई हिस्सों में तापमान 47 से 50 डिग्री सेल्सियस तक दर्ज किया गया. दिल्ली, लखनऊ, पटना, जयपुर, भोपाल और नागपुर जैसे शहरों में ज़मीन की सतह का तापमान तो 53°C तक पहुंच गया. लेकिन जिस तरह हीटवेव का कवरेज हुआ, उसमें एयर कंडीशनर न होने की तकलीफ तो दिखी, लेकिन वो महिलाएं नहीं दिखीं, जो तपते घरों में खाना बना रही थीं, कचरा बीन रही थीं, खेतों में झुककर काम कर रही थीं, या गर्भ में बच्चा लिए सड़कों पर पानी बेच रही थीं.
BBC ने 2024 की एक रिपोर्ट में लिखा:
“Heatwaves silently kill. And the most invisible casualties are often women, especially those in the informal economy or stuck inside poorly ventilated homes.”
इस वाक्य में ही पूरी सच्चाई छुपी है — हीटवेव महिला के लिए एक अदृश्य आपदा है.
Heatwaves impact on women of India — शरीर से लेकर भूमिका तक
महिलाओं का शरीर हीटवेव के प्रति अधिक संवेदनशील होता है. Lancet Planetary Health की रिपोर्ट (2022) बताती है कि महिलाओं की गर्मी से मृत्यु दर पुरुषों की तुलना में 10% ज़्यादा है. गर्भवती महिलाओं में डिहाइड्रेशन, हीट स्ट्रोक और समय से पहले डिलीवरी का खतरा कहीं अधिक होता है. वहीं, पीरियड्स और मेनोपॉज़ के समय शरीर की गर्मी से लड़ने की क्षमता और कम हो जाती है.
Indian Express की एक रिपोर्ट (मई 2024) में छपा:
“Women working in open environments like fields, construction sites or roads face not just dehydration but dizziness, fainting, and urinary infections due to lack of clean toilets and drinking water during peak heat.”
घरों में भी हालात अलग नहीं. खासकर झुग्गियों और गरीब बस्तियों में, जहां टिन की छतें और बिना वेंटिलेशन वाले कमरे एक गर्म तंदूर में बदल जाते हैं. महिलाएं लगातार रसोई में काम करती हैं, पानी कम पीती हैं, और अक्सर पूरे शरीर को ढकने वाले कपड़े पहनने को मजबूर होती हैं. ये सभी मिलकर Indoor Heat Stress को जन्म देते हैं — एक ऐसा खतरा जिसे मीडिया तक नज़रअंदाज़ करता हसामाजिक भूमिका: देखभाल करने वाली महिला खुद सबसे असहाय होती है
भारत में महिलाओं का अधिकतर समय अनपेड केयर वर्क में जाता है — यानी परिवार की देखभाल, खाना बनाना, सफाई और बच्चों की ज़िम्मेदारी. हीटवेव के समय भी महिलाएं पहले बच्चों, बुज़ुर्गों और पति को ठंडा पानी देती हैं, फिर खुद पीती हैं. कई बार पैड्स या menstrual hygiene products की कमी के कारण वह गर्मी में भी खुद को साफ़ नहीं रख पातीं, जिससे संक्रमण फैलता है.
National Family Health Survey (NFHS-5) बताता है कि भारत की 60% ग्रामीण महिलाएं दिनभर में 3–4 गिलास से ज़्यादा पानी नहीं पी पातीं, जबकि गर्मी में शरीर को कम से कम 3 लीटर पानी की ज़रूरत होती है.
भारत में 75% महिलाएं अनौपचारिक क्षेत्र में काम करती हैं — जैसे घरेलू कामगार, खेतिहर मज़दूर, या कचरा बीनने वाली महिलाएं. उन्हें न तो हेल्थ कवर मिलता है, न ही छुट्टी, और न ही कोई कूलिंग व्यवस्था.
आंकड़े जो चौंकाते हैं, पर बहस का हिस्सा नहीं बनते
-
WHO: हर साल दुनिया भर में 1.5 करोड़ लोग हीटवेव से प्रभावित होते हैं, जिनमें बड़ी संख्या महिलाएं होती हैं.
-
IPCC (2023): "जलवायु संकट से सबसे ज़्यादा प्रभावित होने वाले समुदायों में महिलाएं सबसे पहले और सबसे ज़्यादा पीड़ित होती हैं, लेकिन नीतिगत बातचीत से बाहर रहती हैं."
-
CEEW Report (2023): "भारत के 60% से ज़्यादा शहरी गरीब घरों में कोई पंखा या वेंटिलेशन नहीं है. इनमें 70% महिलाओं ने माना कि उन्हें गर्मी में बार-बार चक्कर आते हैं या सिरदर्द होता है."
क्या हो समाधान? — जब तक नीति में महिला की जगह नहीं, राहत अधूरी है
जब भी हीटवेव के लिए राहत योजनाएं बनाई जाती हैं, उनमें महिलाओं की खास ज़रूरतों का ज़िक्र तक नहीं होता. ना कोई gender-specific cooling zones, ना कोई महिला हेल्थ सर्विस, और ना ही कोई awareness campaign जो ग्रामीण महिलाओं को समझा सके कि हीट स्ट्रेस से कैसे बचा जाए.
इस समस्या से निपटने के लिए ज़रूरी है कि:
-
सरकारी योजनाओं में महिलाओं को vulnerable category में शामिल किया जाए
-
शहरों और गांवों में public cooling zones और mobile water stations लगाए जाएं
-
गर्भवती, बुज़ुर्ग और किशोरियों के लिए विशेष स्वास्थ्य सेवाएं चलाई जाएं
-
जलवायु नीति निर्माण में महिला प्रतिनिधित्व अनिवार्य हो
UN Women की भारत प्रमुख सुस्मिता घोष कहती हैं:
“When women lead climate action, they don’t just save themselves — they build community resilience.”
हीटवेव अब केवल गर्मी का हमला नहीं है — यह एक gender injustice है, जो हर साल महिलाओं को चुपचाप झुलसाता है. और जब तक हम इस संघर्ष को सिर्फ "पानी पी लो" वाली सलाह तक सीमित रखेंगे, तब तक न कोई राहत पहुंचेगी, न कोई न्याय मिलेगा.
अब समय है कि हम climate justice is gender justice को समझें — और महिलाओं की आवाज़ को नीतियों में, योजनाओं में और बहसों में केंद्र में लाएं.