बेटियों को तराश रहीं अनुभव और संघर्ष से तपी मां

प्रकृति ने पुरुष और महिलाओं की शारीरिक बनावट में अंतर रखा. पौरुष प्रधान धारणा को बदलते परिवेश में भी महिलाएं दबे-छुपे स्वीकारोक्ति देती रही. पिछले कुछ दशक से ये अनुभवी और संघर्ष से तपी हुई मां जरूर अपनी बेटियों को नए सिरे से तराश रहीं. 

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NEELAM SINGH WOMENS DAY

महिला दिवस पर उल्लास में समाजसेवी महिलाएं (Image: Ravivar Vichar)

इसमें कोई शक़ नहीं कि सदियों से बाहरी काम और आजीविका के लिए जहां पुरुष की तरफ देखा जाता वहीं महिलाओं के हिस्से में चूल्हा-चौका और घर की देखभाल आई.शरीर से कमतर आंका गया. 90 के दशक के बाद महिलाओं ने तेज़ी से बाहर भी कदम रखा. बावजूद महिलाओं के हिस्से के काम कम नहीं हो पाए. यही वजह महिलाओं ने अब इस दिशा में भी मोर्चा खोल लिया. Social Activist Neelam Singh से Women's International Day पर रविवार विचार की खास बात -

जॉब, देखभाल और तालमेल में हुनरमंद बेटियां 

अब वक़्त बदल चुका है. शादी की बात शुरू होते ही बेटियां अब परदे की पीछे नहीं जाती. बराबरी से अपने लाइफ पार्टनर के बारे में पूछती हैं.उनके फैमिली के बारे बैकग्राउंड को लेकर जानना चाहती हैं. यह सुखद है. यदि हम समाज की व्यवस्थाओं और माहौल पर नज़र डालें तो अधिकांश बेटियां,युवतियां या महिलाएं working women बनाना चाहेंगी. बन रहीं.  

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                                                       सोशल एक्टिविस्ट नीलम सिंह एक आयोजन में संबोधित करते हुए (Image: Ravivar Vichar)  

  

इस नई पीढ़ी की female job ,caring और coordination  बनाने में काबिल है. 

इन सबके पीछे पीछे बेटियों के पीछे पिता की तुलना में उन मां की भूमिका है.यही मां अब बेटियों को नए कलेवर में तराश रहीं. उन्हें सामाजिक बदलती व्यवस्था से अवगत करा रही. बेटियां भी ससुराल के साथ अब अपने मायके में अपने अभिभावक की देखभाल का पूरा हक़ चाहने लगी.और ध्यान भी रखने लगी.         

'यह तुम्हारे बस की बात नहीं' ताना बर्दाश्त नहीं 

युवा से अधेड़ हो चुकी महिलाओं के दौर में यह ताना "यह तुम्हारे बाद की बात नहीं " सामान्य सी बात लगती थी.थोड़ी बहुत भी पति-पत्नी की नोक-झोंक या सहमति-असहमति में अधिकांश पुरुषों  का यह कह देना सामान्य बात थी. महिलाओं ने भी जाने-अनजाने में इस धारणा में इस 'कोड' को स्वीकारोक्ति दे दी. इसी चूक ने उन्हें कई साल पीछे धकेल दिया.

 कई बार योग्यता की बाद भी घर की जवाबदारियों को ही आत्मसात कर लिया. परंतु अब इस तरह की ताने बर्दाश्त नहीं. वक़्त के साथ बड़ी होती नई पीढ़ियों की बेटियां मान के हाथों तराशी जा रहीं,वहीं ये बेटियां भी अपनी मां,मम्मा और मॉम में छुपी रह गई प्रतिभाओं को अवसर दिलवाने में जुट गईं.

NEELAM SINGH

आधुनिक सोच और संस्कार की पैरवी करती सोचल एक्टिविस्ट महिलाएं (Image: Ravivar Vichar)  

1857 में प्रथम शिक्षक Savitribai Phule  ने अलख जलाई लेकिन कहीं न कहीं यह लौ बुझ सी गई. इससे वापस प्रज्ज्वलित करने का प्रयास बेटियां करने लगी.  

प्रकृति के सौंदर्य और महिला का अहमियत बनी रहे 

हमारे पौराणिक मान्यताओं से आधुनिक रिसर्च तक यह साबित हो गया कि पौरुष का सौष्ठव और महिलाओं की नज़ाकत ही उनका सौंदर्य है. यह सौंदर्य बना रहना चाहिए.

चाहे महिलाओं ने रेसलिंग, एथिलीट,स्वीमिंग हो या एरोनॉटिक्स जैसे क्षेत्र..हर जगह महिलाओं की दखल है. ये हर फील्ड में सफल हैं. फिर भी महिलाओं की शारीरिक संरचना और खूबसूरती ईश्वर का उपहार है.इस अहमियत को बना रहना चाहिए.

एकल परिवार की सोच भी घातक 

महिलाओं की तमाम उपलब्धियों के बीच जहां  Prime Minister Narendra Modi अपने हर भाषण में  women empowerment की बात कर रहे.self help group की बात कर रहे.रोजगार की बात कर रहे वहीं काबिल होती और लाखों के पैकेज कमाने वाली लड़कियों की सोच में एकल परिवार की सोच भी गहरी पैठ जमा रही.यह घातक है. अपने ही अभिभावकों के साथ वे कई बार असहज हो जाती. होना यही चाहिए जैसे लड़के अपनी लाइफ पार्टनर से सास-ससुर की देखभाल की अपेक्षा रखते,वैसे ही बेटियों के परिवार के लिए भी उनके लाइफ पार्टनर अपना दायित्व निभाए. संस्कारों की नींव आज भी महिलाओं की हाथों में है.महिलाएं ही समाज और संस्कार की असली जनक है.             

 

विचार :नीलम सिंह सूर्यवंशी, Social Activist          

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