'राजनीति' एक ऐसा समंदर, जिसमें आ गए, तो बाहर निकलना नामुमकिन के बराबर हो जाता है. आए दिन नई बातें, कल जो बात कही थी, आज उससे मुकर जाना. क्या झूठ, क्या सच, सब बराबर हो जाना. कौन दोस्त, कौन दुश्मन पता ही ना हो. इतना सब होने बाद भी हर वक़्त ताने और तनाव, बस इसी की हो कर रह जाती है ज़िन्दगी. रियल लाइफ पॉलिटिक्स को रील लाइफ पॉलिटिक्स की नज़र से देखने का ट्रेंड भी जब से शुरू हुआ है, असलियत से कुछ भटक सी गयी है लोगों की विचारधारा. एक सेट परसेप्शन है, हर व्यक्ति (जो राजनीति में है) को लेकर. कितनी सीरीज़ आती है, कितनी फिल्में परदे पर लगकर उतर जाती है, लेकिन नजरिया बदल ही नहीं रहा.
कमज़ोर वीमेन पोट्रेयल इन रील पोलिसिटिक्स
राजनीति में महिलाओं की बात करें, तो उनको इतना वीक और पुरुषों पर डिपेंडेंट दिखाया जाता है, जैसे वे सिर्फ मोहरा है, असली खेल किसी और का है. बात 2023 में आई सीरीज़ 'दसवीं' की कर लें या मिर्ज़ापुर 2 की, हर जगह वीमेन पोट्रेयल एक ऐसी महिला का ही है, जो पुरुष प्रधान विचारों और वातावरण में एडजस्ट करने की कोशिश कर रही है. जो एक फिल्म भारतीय सिनेमा जगत में अभी तक की सबसे ज़्यादा डोमिनेंट वीमेन पोलिटिकल एप्रोच दिखती है, वह भारत के डार्केस्ट पीरियड्स- '1975 की इमरजेंसी' पर बनी फिल्म है. अब इसे स्ट्रांग पोट्रेयल कहे भी तो कैसे?
वर्ल्ड इकनोमिक फोरम की जेंडर गैप रिपोर्ट
हाल ही में वर्ल्ड इकनोमिक फोरम द्वारा एक जेंडर गैप रिपोर्ट तैयार की गयी, जिसमें भारत तीसरा सबसे वर्स्ट परफ़ॉर्मर है पुरे एशिया में. मीडिया कंपनी डॉयचे वेले के अनुसार, "इसमें से अधिकांश गिरावट राजनीतिक सशक्तिकरण के क्षेत्र में हुई, जहां भारत काफी पीछे चला गया, हाल के वर्षों में महिला मंत्रियों की संख्या में उल्लेखनीय गिरावट देखी गई - 2019 में 23.1 प्रतिशत से 2021 में 9.1 प्रतिशत हो गई."
फिल्मों में बताया जा रहा है, वो कही ना कही, असलियत को दिखाता आइना ही है. भारत में महिआएं पॉलिटिकल फील्ड में इतनी कमज़ोर और दबी हुई है, जो कि हमें देखने को मिल रहा है. सुभाष कपूर की OTT सीरीज़ 'महारानी' में लीड एक्ट्रेस हुमा कुरैशी जो नेता का रोल निभा रही है, उनका एक डायलॉग है, "ये सब इतना मर्द लोग कहे है, ऐसा मरदाना सर्कार का मुखिया मंत्री आप हमको काहे बनाए है ?" यह डायलॉग एक एक लाइन में थीकि असलियत सामने लेकर रख दी कि महिलाएं अपने पॉलिटिक्स को आज भी पुरुष प्रधान समझ रहीं है.
तुषार जलोटा की 'दसवीं' सीरीज़, जो 2022 में रिलीज़ हुई, इस सीरीज़ में भी भीमा देवी (निम्रत कौर) अपने पति के जेल जाने पर मुख्यमंत्री की कुर्सी संभालती है. एक ऐसी कहानी में भी अपने पति गंगा राम चौधरी के आगे भीमा को कमजोर पोट्रे किया गया है. 2020 में आई सीरीज़ पंचायत 2, जो लोगों की फेवरेट सीरीज़ बनी, उसमें मंजू देवी (नीना गुप्ता) गांव की सरपंच का रोल तो निभा रहीं है, लेकिन अपने घर कामों को ही महत्व देती दिखी है. प्रधान होने के बाद भी उनका रोल एक रिग्रेसिव महिला का ही पोट्रे किया गया. मिर्ज़ापुर 2 में भी फीमेल पॉलिटिकल कैरेक्टर का कहानी पर कोई भी कण्ट्रोल नहीं है.
रील लाइफ पॉलिटिक्स के बेस्ट फॉर्गोटन एक्ज़ामपल
मज़े की बात यह है, की हाल ही में आई कुछ फिल्मों में, जहां स्ट्रांग फीमेल पॉलिटिक्स को दर्शाने की कोशिश की गयी, वो प्रोजेक्ट्स आज किसी को याद करना भी पसंद नहीं. बेस्ट फॉर्गोटन एक्ज़ामपल के रूप में ए. एल. विजय की 'थलईवी' और सुभाष कपूर की 'मैडम चीफ मिनिस्टर' की बात होती है. फिल्मों की राइटिंग, से लेकर डेपिक्शन हर पार्ट में कुछ न कुछ कमी है.
सिर्फ एक फिल्म जिसनें अपनी फेमल करतेर को पॉलिटिक्स में बेहद स्ट्रांग दिखाया थ वो है संजय लीला भंसाली की 'गंगूबाई कठियावाड़ी'. अपने पॉलिटिकल करियर और खुद के लिए प्यार और को भी दाव पर लगाने को तैयार थी आलिया भट्ट का किरदार. यह था एक स्ट्रांग महिला पॉलिटिकल पोट्रेयल.
कुछ रील लाइफ पॉलिटिक्स के बेस्ट एक्जाम्पल्स
भले ही आज की टाइम की फिल्मों में आपको डिसपॉइंटमेन्ट देखने को मिले, लेकिन ये केस पास्ट की फिल्मों में बिलकुल नहीं था. इतनी स्ट्रांग फीमेल करक्टेर्स दिखाए गयी है, कि बहुत से लोगों को अपने पॉलिटिकल करियर बचाने के लिए पूरी कि पूरी फिल्मों को तबाह करना पड़ा. बात हो रही है अमृत नहाटा कि फिल्म 'किस्सा कुर्सी का' की. सुरेखा सिकरी और शबाना आज़मी, की करक्टेर्स ने मज़ाक और सर्चसम में इंडियन पोलिस्टिक्स की डार्क साइड को इस तरह से दर्शाया था की उस वक़्त फिल्म की रिलीज़ पर भी रोक लगा दी गयी थी. संजय गाँधी ने इन फिल्म के सारे निगेटिव्स भी डिस्ट्रॉय कर दिए थे. एक और फिल्म, 'आंधी' में भी आरती (सुचित्रा सेन) के कैरेक्टर ने अपने पॉलिटिकल करियर के आगे परिवार और प्यार को त्याग दिया था.
सोसाइटी की सोच बदलना ज़रूरी
इन वक़्त बनी हर फिल्म में महिला किरदार सिर्फ कहानी का हिस्सा नहीं होता थी, बल्कि पूरी कहानी हुआ करती थी. उस वक़्त बनी इन फिल्मों को तब लाया गया था, जब एक महिला प्राइम मिनिस्टर थी. लेकिन आज ना जणू क्यों ऐसा महसूस होता है, जैसे फिल्में हो या रियल पॉलिटिक्स, कोशिश यह की जा रही है कि ज़्यादा से ज़्यादा मेल पॉलिटिशंस सामने आए. आज कि फिल्मों में या तो वीक स्टोरी या उनका कमर्शियल लेवल पर ना चल पाना यह परेशानी रही.
लेकिन क्या यह बोलना सही नहीं होगा कि देश कि जनता एक फेमल पॉलिटिशियन को एक्सेप्ट करने को तैयार ही नहीं है? अगर पॉलिटिक्स से हटकर हालात देखे जाए, तो महिलाएं हर चीज़ में लीड ले रहीं है. हां, यह बात सच है कि स्कोप कि बहुत गुंजाईश है अभी, लेकिन सवाल ये है कि लोगों को लिए पॉलिटिक्स में महिलाओं को एक्सेप्ट करना आज भी सवाल क्यों बना हुआ है!