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'फेमिनिज़्म' और 'फेमिनिस्ट', बस ये ही 2 ट्रेंडिंग शब्द है फ़िलहाल दुनिया में, जिनपर जाने कितनी चर्चाएं, डिबेट्स और पर्सनल कोल्ड वॉर्स चलती रहती है लोगों की. कुछ लोग तो भेड़चाल में में ही इस लीग में जुड़ जाते है. भले ही फेमिनिज़्म का असली मतलब ना पता हो, लेकिन सामने आकर बेतुके कमैंट्स और बातें करने से कोई पीछे नहीं हटता. महिला सशक्तिकरण का झंडा लहरा रहे हर सूडो-फेमिनिस्ट से अगर पूछा जाए कि देश में महिलाओं का असल हाल क्या है, तो जवाब किसी के पास नहीं होगा.
क्या है बॉलीवुड में महिलाओं की स्पेस
आए दिन बहुत से रिपोर्ट्स, स्टडीज़ सामने आ जाती है जिनको देखकर समझना मुश्किल नहीं है कि जितना हाइप बना कर रखा है फेमिनिज़्म का, उतना है नहीं. भारत के सबसे एलीट क्लास बॉलीवुड में भी यही हाल है, तो नॉर्मल और आम लोगों की तो बात ही छोड़ देते है. बॉलीवुड में आज भी वीमेन स्पेस और काम इतना कम है की देखकर हैरानी होती है. बॉलीवुड की बात इसीलिए की जा रही है क्यूंकि, यह एक ऐसी इंडसट्री है जो भारत के हर व्यक्ति को इन्फ्लुएन्स करने की ताकत रखती है. लोग एक्टर्स, एक्ट्रेसेस, फिल्म्स डाइरेक्टर्स को देखकर जितना प्रभावित होते है उतना शायद ही किसी और फील्ड से होते होंगे.
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लेकिन इस इंडस्ट्री में भी महिलाओं और उनकी प्रेज़ेन्स की बहुत कमी है. हाल ही में हुई टाटा इंस्टीटूट ऑफ़ सोशल साइंसेस (TISS) की स्टडी लाइट्स, कैमरा, टाइम फॉर एक्शन से सोच में डाल देने वाले डाटा सामने आए है. कुछ तो ऐसी बातें सामने आई है जिनके बारे में आज से पहले कभी सोचा ही नहीं गया.
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जब से हिंदी फिल्म इंडस्ट्री में नेशनल अवार्ड्स मिलना शुरू हुए है, आज तक सिर्फ 13% विनर्स महिलाएं रही है. सोच कर हैरानी नहीं होती? मतलब वीमेन टेलिंग वीमेन स्ट्रोरिएस के नाम पर इतनी चर्चा करने वाले इन लोगों ने ये तो कभी नहीं सोचा होगा. सिर्फ 13 प्रतिशत! देखा जाए तो ये ना किए बराबर है.
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आप भी सोच रहे होंगे कि फिल्मों में होते तो है महिलाओं के इतने किरदार, तो फिर ये डाटा इतना चौका देने वाला क्यों है. लेकीन देखा जाए, तो फिल्म में महिलाओं के ज़्यादातर किरदार मेल डोमिनेंट, या मेल इन्फ्लुएंस्ड ही होते है. डाटा रिसर्च में एक स्टडी होती है जिसे बेकडेल टेस्ट कहते है. बेसिकली, यह टेस्ट कोई भी फिल्म तब पास करती है जब दो लड़कियां आपस में लड़कों और मेल डोमिनेंट टॉपिक्स के अलावा अपने लाइफ, करियर या फीमेल सेंट्रिक टॉपिक्स का डिस्कशन कर रही हो. हैरानी की बात ये है कि सिर्फ 36% फिल्में इस टेस्ट को पास कर पाई है. मतलब ये की हमारी फिल्मों में लड़कियों और महिलाओं के बीच होने वाले डिस्कशन भी मेल सेंट्रिक होते है.
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अगर बात करें किसी हैंडीकैप्ड व्यक्ति के लीड रोल की तो आप सोचते रह जाओगे लेकिन आपको फिल्मों के नाम याद नहीं आएँगे. सिर्फ एक फिल्म शोनाली बोस की 'मार्ग्रीटा विथ ऐ स्ट्रॉ' जिसमें कल्कि कोचलिन को सेरिब्रल पाल्सी से पीड़ित दिखाया गया है. आज भारत में हर दिन हमें खबरे पढ़ने मिल जाती है कि स्पेशली चैलेंज्ड लोग नार्मल लोगों से ज़्यादा बेहतरीन काम कर के दिखा रहें है. तो फिर सवाल यह है कि बॉलीवुड में लीड रोल में इन कैरेक्टर्स को क्यों नहीं लिया जाता. और अगर लिया भी जा रहा है, तो सिर्फ एक इमोशनल पॉइंट ऑफ़ व्यू देने के लिए.
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ऑफ स्क्रीन सिनेमा की बात की जाए तो वीमेन स्पेस 1% या उससे भी कम है. सिनेमेटोग्राफी और साउंड डिज़ाइनिंग में 1%, एडिटिंग में 0.4%और लिरिक्स और स्क्रिप्टिंग में 0. 2%, ये है वो भारतीय सिनेमा में महिला के ऑफ स्क्रीन परसेंटेज.
इन सब के बावजूद हैरानी कि बात ये है कि हाल ही में गुनीत मोंगा की डॉक्यूमेंट्री 'द एलीफैंट विस्परर्स' को ऑस्कर अवार्ड मिला. इंडियन इंडस्ट्री में बनने वाली जितनी भी फीमेल सेंट्रिक फिल्में है, उनमें से ज़्यादातर परफेक्शन का दूसरा नाम है. लेकिन फिर भी भारतीय जनता आज भी सिनेमा में लड़कियों और महिलाओं को पूरी तरह से एक्सेप्ट करने को तैयार नहीं है.