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हम इससे पहले कई बार कह चुके हैं कि असली आज़ादी आर्थिक आज़ादी होती है. किसी भी इंसान या वर्ग को उसका अधिकार तभी मिलता है, या बराबरी तभी मिलती है जब उसे आर्थिक आज़ादी मिलती है. फेमिनिज्म यानी कि नारीवाद का सबसे ठोस आधार आर्थिक स्वतंत्रता ही है.
पुश्तैनी जायदाद में महिलाओं का हिस्सा?
आर्थिक स्वतंत्रता का मतलब आपको हर महीने मिलने वाली तनख्वाह भी है, व्यापार में होने वाला नफा भी है और पुश्तैनी जायदाद भी. तो चलिए आज बात करते हैं कि यह जो पुश्तैनी जायदाद है वो महिलाओं तक पहुंचती भी है या नहीं. हाल ही में आई UN report के मुताबिक दुनियाभर में जितनी ज़मीन है उसमें से सिर्फ 20% ही महिलाओं के नाम पर है. इसमें हर तरह की ज़मीन शामिल है, पुश्तैनी या नई खरीदी हुई. अब समझ ही सकते हैं कि हम बराबरी से कितने ज़्यादा दूर हैं.
हिंदुस्तान की बात करते हैं. क्योंकि भारत विभिन्न धर्मों का देश है तो यहां पर Inheritance Law अलग-अलग धर्म के हिसाब से तय हुआ है. भारत के संविधान में महिला और पुरुष को समान अधिकार प्राप्त है लेकिन इन्हेरिटेंस यानी की विरासत और उससे जुड़े नियम का आधार धर्म है.
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अगर हम Hindu Inheritance Law की बात करें तो 1956 में बनाए गए कानून में हुए 2005 के संशोधन ने इस कानून को मज़बूत बनाया. 2005 के संशोधन के मुताबिक एक महिला को चाहे वह विवाहित हो या अविवाहित अपनी पुश्तैनी जायदाद में बराबर का अधिकार है. हिंदुस्तान की दूसरी बड़ी आबादी वाले धर्म की बात करें तो इस्लाम के मुताबिक क्योंकि एक महिला को शादी में हक़ मेहर की रकम मिलती है तो इसलिए पुश्तैनी जायदाद में उसे सिर्फ आधा हिस्सा मिलता है.
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Inheritance Law का हक है लेकिन सिर्फ कागज़ पर !
यह है मोटे-मोटे दो Inheritance Law यानी विरासती कानून की बात. अब देखिए यह कानून कागज़ पर तो है, इसका मतलब कि भारत का कानून भारत का संविधान महिलाओं को पुश्तैनी जायदाद में अधिकार देता है. लेकिन समाज की अगर बात करें तो क्या ज़मीन पर महिलाओं को उनका यह अधिकार मिल रहा है?
अपने आसपास नज़र घुमा कर देखिएगा, अपने परिवार में, अपने मोहल्ले में, अपने गांव/शहर में. समाज में चलन है कि "जी हमने अपनी बेटी की परवरिश में खर्च कर दिया, उसकी शादी में खर्च कर दिया तो ऐसे में जायदाद बेटे के नाम पर होनी चाहिए." गावों में एक बड़ा चलन यह है कि पुरुष अपनी विवाहित बहनों से एक कागज़ पर उनकी मर्ज़ी से दस्तख़त करवाते हैं जिसमें महिलाएं अपनी इच्छा से अपनी पुश्तैनी ज़मीन छोड़ देती हैं. इस प्रथा का आधार यह है कि क्योंकि महिला की परवरिश और शादी में खर्च हो गया है इसलिए ज़मीन का अधिकार बेटे को मिलना चाहिए.
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अब आप यह सोचिए कि औसतन शादी का खर्चा ज़मीन की कीमत से बहुत कम होता है. ज़मीन कीमत में बढ़ती जाती है और साथ ही अगर ज़मीन खेती की हो तो उससे कुछ ना कुछ आय भी लगातार निकलती रहती है. तो जितना सीधा इस मामले को समाज मान के चलता है उतना यह है नहीं. और यह जो चलन है वह किसी भी तरीके से महिलाओं को बराबरी का अधिकार नहीं देता, ज़मीन जायदाद में सही हिस्सा नहीं देता. और इसका सीधा-सीधा असर उनकी आर्थिक स्वतंत्रता पर पड़ता है.
मां और पत्नी के अधिकार कहां ?
अब यह तो हो गई समाज में एक बेटी के अधिकारों की बात. हम अगर एक पत्नी के अधिकार की, एक मां के अधिकार की बात करें तो स्थिति वहां पर और भी ज़्यादा डावांडोल है. इसलिए यह मामले अक्सर कोर्ट पहुंच जाते हैं. पिछले साल की ही बात है, मद्रास हाई कोर्ट ने एक बहुत महत्वपूर्ण फैसला दिया था. एक पुरुष ने मद्रास हाई कोर्ट में अर्ज़ी लगाई थी कि जो भी उसने अपनी शादी के बाद कमाया कमाया है उस पर पूरा का पूरा अधिकार उसका है, उसकी पत्नी का उस पूंजी पर कोई हक नहीं बनता.
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कोर्ट ने फैसला दिया कि क्योंकि उसकी पत्नी घर पर रहकर घर संभाल रही थी इसी वजह से वह पूरी तरह से हर फ़िक्र से आज़ाद होकर काम कर पाया और उस पूंजी को कमा पाया. तो ऐसे में उस पूंजी पर उसकी पत्नी का भी अधिकार है. यह एक महत्वपूर्ण फैसला था क्योंकि जैसा कि हमने कहा कि जब बात पत्नी या मां की आती है तब समाज में प्रचलित चलन के चलते महिलाओं को और ज़्यादा नुकसान उठाना पड़ता है.
अब ज़रूरी यह है कि कागज़ पर जो अधिकार औरतों को है, कानून उन्हें जो समानता दे रहा है वह ज़मीनी हकीकत भी बने. औरतों को Inheritance Law के मुताबिक अपनी पुश्तैनी जायदाद में हिस्सा मिले, अपने पति की पूंजी में हिस्सा मिले और समाज में प्रचलित अलग-अलग चलन उन्हें उनके अधिकारों से वंचित न करें.
इसका इलाज सिर्फ़ और सिर्फ़ जागरूकता ही है. महिलाओं को सबसे पहले यह समझना होगा कि अपने हक की ज़मीन जायदाद उनके लिए कितनी मददगार साबित होगी और उनकी शादी में हुआ खर्च अक्सर उस ज़मीन की कीमत का एक बहुत छोटा हिस्सा होता है. शादी के बाद भी अलग-अलग रस्मो रिवाज के मुताबिक मायके वाले एक महिला के ससुराल वालों पर जो खर्चा करते हैं, वह सभी खर्च मिलकर भी एक ज़मीन की कीमत और उससे होने वाली आय की बराबरी नहीं करते. इस वक्त सिर्फ़ और सिर्फ़ जागरूकता ही ज़मीन जायदाद से जुड़े मुद्दों में महिलाओं को बराबरी का स्थान दिला सकती है.