सीता नवमी (Sita Navmi 2024), जिसे जानकी नवमी के नाम से भी जाना जाता है, हिंदू धर्म का एक महत्वपूर्ण त्योहार है जो माता सीता के जन्मोत्सव के रूप में मनाया जाता है. यह दिन नारी शक्ति, निष्ठा, धैर्य, आत्मसम्मान और समर्पण का प्रतीक है, जो मां सीता के जीवन से हमें सिखने को मिलता है.
सीता नवमी का पौराणिक महत्व
मां सीता (Sita - The Epitome of Womanhood) को भारतीय पौराणिक कथाओं में नारी शक्ति का प्रतीक माना जाता है. उनका जन्म राजा जनक की भूमि में हुआ था, जिस वजह से उन्हें 'पृथ्वी की बेटी' भी कहा जाता है. मां सीता का जीवन विभिन्न आदर्शों का प्रतीक है, जिनमें नारी सशक्तिकरण, सत्य के प्रति निष्ठा और धैर्य प्रमुख हैं.
जीवन के हर मोड़ पर, चाहे वह वनवास हो या रावण द्वारा उनका अपहरण, मां सीता ने अपने गुणों और कर्तव्यों का हर कदम पर पालन किया है. सीता नवमी के अवसर पर महिलाएं भी अपने परिवार और समाज के प्रति अपने कर्तव्यों का पालन करते हुए मां सीता के धैर्य और साहस को अपने जीवन में अपनाने के लिए पूजा करती हैं.
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शक्ति और समर्पण की मिसाल
मां सीता का जीवन नारी शक्ति और समर्पण का एक मज़बूत उदहारण है. उन्होंने अपने पति श्री राम के साथ वनवास का कठिन समय खुशी से स्वीकार किया और हर परिस्थिति में अपने कर्तव्यों को निभाया. उनकी सहनशीलता और आत्मविश्वास हमें जीवन में आने वाली चुनौतियों का सामना करने की सीख देते हैं. सीता नवमी न केवल धार्मिक दृष्टिकोण से महत्वपूर्ण है, बल्कि यह नारीत्व और समर्पण का भी पर्व है. मां सीता का जीवन यह संदेश देता है कि नारी केवल कोमलता की प्रतीक नहीं है, बल्कि उसमें अपार शक्ति और साहस भी होता है.
आज के समय में, जब महिला सशक्तिकरण (Women Empowerment) की बात होती है, तो सीता नवमी का महत्व और भी बढ़ जाता है. यह पर्व हमें यह समझने का मौका देता है कि नारी सशक्तिकरण का असली मतलब क्या है. यह केवल बाहरी स्वतंत्रता नहीं है, बल्कि आंतरिक शक्ति, साहस और आत्मसम्मान का विकास भी है.
कुछ बातें जो दर्शाती हैं मां सीता का व्यक्तित्व...
कहते हैं कि "हर नारी के भीतर अपार शक्ति और साहस होता है... एक सीता बसती है, जिसे पहचानना और बाहर लाना आवश्यक है." आज के दौर में यह त्यौहार महिलाओं को यह प्रेरणा देता है कि वे अपने अधिकारों के लिए खड़ी हों और किसी भी परिस्थिति में अपने आत्मसम्मान से समझौता न करें.
- धैर्य और सहनशीलता: सीता ने अपने जीवन में अनेक कठिनाइयों का सामना किया, फिर भी उन्होंने अपने धैर्य और सहनशीलता को कभी नहीं खोया. चाहे वनवास हो, रावण द्वारा अपहरण, या अग्नि परीक्षा, उन्होंने हर चुनौती का सामना शांत और दृढ़ता से किया. आज की नारी, मां सीता से धैर्य और सहनशीलता का गुण सीख सकती हैं और हर चुनौती का सामना धैर्यपूर्वक और बिना हार माने कर सकती हैं.
- साहस और आत्मविश्वास: सीता को कोमल और सहनशील माना जाता है, लेकिन उनके भीतर एक असीम साहस और शक्ति थी. रावण के सामने उन्होंने अपने साहस और मानसिक शक्ति का परिचय दिया और विपरीत परिस्थितियों में भी आत्मबल नहीं खोया. ऐसे ही अपने जीवन की विपरीत परिस्थितियों में साहस और आत्मविश्वास बनाए रखना महिलाओं के लिए महत्वपूर्ण है.
- न्याय और सत्य के प्रति निष्ठा: सीता ने हमेशा सत्य का साथ दिया और अपने सिद्धांतों पर अडिग रहीं. अग्नि परीक्षा के समय उन्होंने अपनी पवित्रता सिद्ध की और सत्य के प्रति अपनी निष्ठा दिखाई. आज की महिलाएं भी सत्य और न्याय के प्रति निष्ठा बनाए रखते हुए अपने सिद्धांतों पर डटी रह सकती हैं.
- प्रेम और समर्पण: सीता का अपने पति श्रीराम के प्रति प्रेम और समर्पण अनुपम था. उन्होंने हर परिस्थिति में अपने पति का साथ दिया और उनके सुख-दुःख में सहभागी बनीं. आज की महिलाएं भी रिश्तों में प्रेम और समर्पण का महत्व समझ सकती हैं, चाहे वह पति-पत्नी का रिश्ता हो, माता-पिता का या मित्रों का.
- आत्मसम्मान और स्वाभिमान: आत्मसम्मान और स्वाभिमान किसी भी महिला के लिए अत्यंत मत्वपूर्ण है. जब श्रीराम ने लोकापवाद के कारण सीता को वनवास दिया, तो सीता ने इसे अपनी प्रतिष्ठा के खिलाफ माना और वापस लौटने के बजाय धरती माता की गोद में समा गईं, लेकिन उन्होंने कभी अपने स्वाभिमान पर आंच नहीं आने दी.
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हर पत्नी को होना चाहिए मां सीता की तरह...
2012 में, बॉम्बे हाई कोर्ट (2012 Bombay High Court Verdict) ने एक तलाक के मामले की सुनवाई के दौरान टिप्पणी की कि "एक पत्नी को मां सीता की तरह होना चाहिए और अपने पति का साथ देना चाहिए, चाहे परिस्थितियां कैसी भी हों." इस टिप्पणी ने कई डिबेट्स और आलोचनाओं को जन्म दिया.
आलोचकों का कहना था कि
"यह विचार महिलाओं के अधिकारों और उनकी स्वतंत्रता के खिलाफ है. यह टिप्पणी modern society में महिलाओं की भूमिका और उनकी स्वतंत्रता को नकारने वाली है."
लेकिन अगर हम इसी बात दूसरा पहलू देखें, तो क्या यह बात सही नहीं है! क्या एक औरत को मां सीता की तरह अपने आत्मसम्मान और न्याय के लिए आगे नहीं रहना चाहिए? क्या मां सीता की तरह जीवन की चुनौतियों से नज़रे मिलाकर नहीं लड़ना चाहिए?
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