जब chipko movement की शुरुआत की गई होगी तो हर उस महिला के दिमाग और दिल में सिर्फ एक आवाज़ होंगी कि हमें हमारे अन्नदाता,वायुदाता ओर प्राणदाता... जिन्हें हम अक्सर 'जंगल' कहते है, को किसी भी हालत में बचाना है. भले ही ये अभियान ख़त्म हो गया हो और वो महिलाएं अब हमारे बीच ना हो लेकिन उनकी भावनाएं और विचारधारा आज भी कुछ महिलाओं की रगों में खून बनकर दौड़ रही है.
Uttarakhand की महिलाएं बन रहीं सशक्त
Chamoli Uttarakhand में शुरू हुए Chipko Movement की यादें आज भी उन जंगलों में ताज़ी है. देवभूमि uttarakhand की महिलाओं ने हर समय साबित किया है कि environment preservation के लिए वे कुछ भी करेंगी, इन महिलाओं ने समाज के विभिन्न क्षेत्रों में अपनी महत्वपूर्ण भूमिका भी अदा की है. पहाड़ी जिलों की महिलाएं धीरे-धीरे स्वरोजगार की सीख लेकर आत्मनिर्भर बन रही हैं.
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Uttarakhand की ये महिला जोड़ रही environment preservation और women empowerment
एक ऐसी ही महिला है लक्ष्मी रावत, जो environment preservation के साथ महिलाओं को स्वरोजगार की दिशा में भी आगे बढ़ाने का काम कर रही हैं. चमोली जिले के नंदप्रयाग थिरपाक गांव की रहने वाली लक्ष्मी ने Chipko movement की धरती पर 20 सालों में बांज, शहतूत, भीमल, तिमिल, रीठा, तेजपत्ता जैसे 50 हजार से ज्यादा पौधे लगाए हैं.
लक्ष्मी तैयार कर चुकी है 500 self help groups
साथ ही वह महिलाओं को आत्मनिर्भर बनाने में भी जुटी हैं, जिसके लिए उन्होंने अबतक 500 self help groups (Uttarakhand self helps groups) बनाकर 150 ग्राम संगठनों के जरिए पांच हजार महिलाओं को प्रशिक्षण दिया हैं. लक्ष्मी महिलाओं को organic farming के माध्यम से सब्जी उत्पादन का प्रशिक्षण देकर प्रोत्साहित कर रही हैं. इसके लिए उन्हें 2018 में गौरा देवी सम्मान दिया गया था.
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SRLM की महिलाकर्मियों को कर चुकी है प्रशिक्षित
महिलाओं को स्वावलंबी बनाने का प्रशिक्षण देने के लिए लक्ष्मी रावत को uttarakhand government द्वारा हरियाणा भी भेजा गया था, जहां उन्होंने राज्य ग्रामीण आजीविका मिशन (SRLM) के तहत सैकड़ों महिलाओं को प्रशिक्षित किया. साथ ही वह uttarakhand के 10 से ज्यादा जिलों में women empowerment के लिए women SHGs को प्रशिक्षण दे चुकी हैं.
पहाड़ों में महिलाओं के मायके होते हैं जंगल
लक्ष्मी ने कहा कि- "पहाड़ में रहने वाली महिलाओं के लिए सही मायने में जंगल ही उनके मायके होते हैं, क्योंकि पहाड़ों में महिलाओं का ज्यादातर समय चारा पत्ती लाने, लकड़ियां लाने आदि में ही गुजर जाता है, जहां महिलाएं अक्सर गाना गुनगुनाते हुए दिख जाती हैं. इससे उनकी जंगलों से भावनाएं जुड़ी रहती हैं."
वे आगे कहती है- "मां के जल्दी गुजर जाने से जिम्मेदारियों ने छोटी सी उम्र में मेरा दामन थाम लिया था. शादी भी कम उम्र में हो गई. जिसके बाद से ज्यादातर समय उनका जंगलों में ही गुजरने लगा. इससे मुझे लगा कि क्यों न हम अपने आसपास ही खूब सारे पेड़ पौधे लगाएं, जिससे कि किसी को भी प्रकृति के बीच रहने के लिए ज्यादा दूरी तय न करनी पड़े."
इस मुहिम में वह धीरे-धीरे कामयाब हो रही हैं और अन्य महिलाएं भी उन से जुड़ रही हैं. बस इसी विचार के साथ उन्होंने यह कार्य शुरू किया और आज वे पहाड़ी महिलाओं को सशक्त कर आगे बढ़ा रही है और पर्यावरण भी बच रही है.